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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
धन्नाचरित्र सं० १६८८ भाद्र शुक्ल १३, रविवार को बिलपुर में संपूर्ण हुई।
रूपसेनकुमाररास-(२० ढाल ३०१ कड़ी सं० १६८१ विजयादशमी, रविवार, मेड़ता) का आदि
कामितदायक कलपतरु, कमला केलि निवास,
पुरुमादांणी प्रणमीयइं श्रीफलवधिपुर पास । इसमें कवि ने गुरुपरंपरा विस्तार से बताई है और खरतरगच्छ के जिनराज सूरि से लेकर जिनसागर, जिनकुशल, महिमामेरु, हर्षचंद्र तथा हर्षप्रमोद तक का पुण्यस्मरण किया है। रचनाकाल इस प्रकार बताया है
संवत सोल इक्यासीयइ, विजयदसमि रविवार,
नगर मनोहर मेड़तइ, अह रच्यो अधिकार । यह रचना दान का महत्व दर्शाने के लिए रची गई है, यथा -
दांनइ सुखसंपद मिलइ, दांनइ दालिद्र जाइ।
दांनइ संकट सवि टल इ, दांनइ दउलति थाइ।' मत्स्योदर चौपाई --(१७ ढाल सं० १६८२ भाद्रशुक्ल १३ रविवार) इसका कथानक शांतिनाथ चरित्र का एक अंग है । कवि लिखता है
शांतिनाथ चरितइ अछइ, अह कथानक चंग,
जिनभाषित धर्म आदरोजिम होइ रंग अभंग । इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है--
सोहगसुदर सुखकरण, पूरण परम जगीस,
सुमति सुमतिदायक सदा, जगजीवन जगदीस । इसमें जैनधर्म ग्रहण करने का आग्रह किया गया है, यथा--- से संबंध सुणी करी ध्रम कीजे रे,
लीजे नरभवलाह, जैन धर्म कीजै रे। रचनाकाल-संवत सोल व्यासीये, सगले हुउ सुगाल, सघन घनाघन वरसीया फलिय मनोरथ माल
जैन धर्म कीजै रे ।
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१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० १२३ .
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