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पुण्यकीर्ति
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सं० १६८३ बिलपुर; अमरसेन-वयरसेन चौपइ सं० १६६६ सांगानेर, धन्नाचरित्र सं० १६८८ बिलपुर; कुमारमुनिरास, मोहछत्तीसी और मदछत्तीसी आदि रचनायें की, जिससे सहज ही अनुमान होता है कि आप एक श्रेष्ठ रचनाकार थे।' पुण्यसाररास इनकी सर्वप्रसिद्ध रचना है, उसका संक्षिप्त विवरण पहले दिया जा रहा है । यह २०५ कड़ी की रचना है। इस रचना की कथा जैन पाठकों में पर्याप्त प्रचलित है और इसकी अनेक प्रतियाँ उपलब्ध हैं। श्री कासलीवाल ने इसका रचनाकाल सं० १६६० मागसिर सुदी १० बताया है किन्तु पुस्तक में रचनाकाल 'छाठसि' दिया गया है, यथा
संवत सोले सै छाठसि समइ, बीजे दसमी गुरुवार, सांगानेर नगर रलीयामणो, पभण्यो अह विचार । आदि-नाभिराय नंदन नमु, शांति नेमि जिन पास,
महावीर चोवीसमो प्रणम्या पूरे आस । श्री गौतम गणधर सधर, लीलालब्धिनिधान, समरी सहगुरु सरसती वपुषि वधारे वान ।
धर्मे कीयां धन संपजे, धर्मे रूप अनूप
सांचा सुख धर्मे हुवे, धर्मे लीलविलास । इसमें पुण्यसार के धर्म कार्यों का महत्व दर्शाया गया है। गुरु परम्परा इस प्रकार कही गई है।
हरषचंद्रगणि हर्षे हितकर, वाचक हर्षप्रमोद,
तास सीस पुन्यकिरति इम भणे, मन धरी अधिक प्रमोद । श्री देसाई ने इस रास की बीसों प्रतियों का उल्लेख जैन गुर्जर कविओ में किया है जिससे इसकी लोकप्रियता का अनुमान किया जा सकता है। १. श्री अगर चन्द नाहटा -परम्परा पृ० ८० २. डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल-राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डार की ग्रन्थ
सूची भाग ५ पृ० ४६३ ।। ३. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ४०५ और भाग ३ पृ० ९११-९१४
(प्रथम संस्करण) और भाग ३ पृ० १२०-१२५ (द्वितीय संस्करण)
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