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प्रमोदशील शिष्य
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प्रभाचन्द--(गद्यकार) इन्होंने 'तत्त्वार्थसूत्रभाषा' नामक हिन्दी गद्य रचना का निर्माण किया है। इसकी प्रतिलिपि सं० १८०३ की प्राप्त है। डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने इस रचना को १७वीं शताब्दी का बताया है। इसमें सूत्रों का विस्तृत अर्थ हिन्दी भाषा में समझाया गया है । इसकी भाषा शैली का नमूना देखिये -
केइक जीव कर्मभूमि बिना सिद्ध होइ हैं । केइक जीव दीपस्यों सिद्ध होइ हैं। केइक जीव उदधि स्यौं सिद्ध हैं। केइक जीव थल सिद्ध हैं। केइक जीव रिधि प्राप्त सिद्ध हैं, केइक जीव रिद्धि बिना सिद्ध हैं।
.. के इक जीव अधोसिद्ध हैं। कई भांति करि घणा ही भेद स्यौं सिद्ध हुवा है । सो सिद्धान्त थे समझि लीज्यो। इति तत्त्वार्थाधिगम मोक्षशास्त्रे दसमोध्यायः ।।
प्रमोदशील शिष्य -तपागच्छीय प्रमोदशील के इस अज्ञात शिष्य ने सं० १६१३ फाल्गुन शुक्ल १० को ३७ कड़ी की एक रचना 'सीमंधर जिन स्तोत्र' (विचार संयुक्त) लिखा, जिसकी प्रारम्भिक पंक्तियां निम्नांकित हैंसरसति सामिणि बे कर जोड़ी,
गुण गायसु आलस सवि छोड़ी, सीमंधर जिनराय तु, जय जयु सीम० पुष्कलावती विजयनू नाम पुडरी किणी नयरी अभिराम,
आस मी करीयसु शोभतु-जयु जयु सीमं० । रचनाकाल-अनइ सोल तेरोत्तरइ सार, शुदि 'फागुण दसमी उदार,
इम गायु ऊलट आणी, तम्हें वंदउ भविअण प्राणी। अन्त में कलश इस प्रकार है
इय सीमंधर जिनवर नमिइं, असुरासुर भासुर सम जिनराय तुहा
दुख दुर्गतिभंजण जणमणरंजण, भवीयण पूरिई तुह सुह । १. डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल-प्रशस्ति संग्रह, पृ० २१५
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