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परिमल या परिमल्ल
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"१६५१ में परिमल्ल ने श्रीपालचरित्र रचा । यह अत्यन्त लोकप्रिय काव्य है। इसकी तमाम प्रतियाँ और उनके अनेक विवरण उपलब्ध हैं। यह उच्चकोटि का प्रबन्ध काव्य है। इसमें राजा श्रीपाल एवं रानी मैना सुन्दरी की कथा है जिसने अपनी जिन भक्ति के बल पर पति का कोढ़ ठीक कर लिया था। धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, हिंसा-अहिंसा का घात-प्रतिघात दिखाकर कवि ने बड़े कौशल से श्रीपाल के चरित्र का दृष्टान्त मैना सुन्दरी के शील के आधार पर प्रस्तुत किया है। अन्त में जैनधर्म का महत्व दिखाते हुए प्रबन्धकाव्य समाप्त किया गया है। यह रचना दोहे-चौपाइयों में लिखी गई है। भाषा में तद्भव शब्दों की प्रधानता है किन्तु यति गति का बराबर ध्यान रखा गया है । काव्य भाषा में अनुप्रास एवं अन्य अलंकारों का समावेश है। भाषा में ब्रज-बुन्देली और मारवाड़ी के मिले-जुले शब्दों का प्रयोग भी किया गया है । भाषा के नमूने के लिए कुछ छन्द प्रस्तुत हैं
प्रथमहि लीजै ॐ अकारु, जो भव दुख विनासन हारु । सिद्धचक्रव्रत केवलरिद्धि, गुन अनंत फल जाकी सिद्धि । प्रनमौ परम सिद्ध गुरु सोइ, अन्य समल सब मंगल होइ, सिंधपुरी जाकौ सुभ थान, सिंध पुरी सुभ अनंत निधान ।' वंदौ जिनशासन के धम्म, आप साय नासे अधकर्म, वंदो गुरु जे गुण के मूर, जिनते होय ग्यान को पूर । वंदौ माता सिंहवाहिनी, जाते सुमति होय अति घनी,
वंदौं मुनियन जे गुनधम्म, नवरस महिमा उदति न कर्म । २ यह सं० १६५१ में लिखी गई, यथा
संवत सोरह से ऊचरौ, समझौ इक्यान आगरौ, मास असाढ़ पहोचो आइ, वर्षा रितु को से कहो बढ़ाइ। पछि उजारौ आवै जानि, शुक्रवारु वारु परवान,
कवि परमल्ल सुध करि चित्त, आरम्भौ श्रीपालचरित्र । ३ १. डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल--राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डार की ग्रन्थ
सूची ५वाँ भाग पृ० ३९५ २. डा० प्रेमसागर जैन-हिन्दी जैन भक्ति काव्य-पृ० १३५-१३६ ३. डा० कस्तूरचत्द कासलीवाल-राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डार की ग्रन्थ
सूची पृ० ३९५
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