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परमानन्द
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लिखा । हर्षाणंद के दूसरे शिष्य विवेक हर्ष ने हीरविजयसूरि (निर्वाण) रास भी इसी समय लिखा था। परमानंद के ग्रंथ का प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है
समरी सरसति भगवति शुभमति, आपे अविरल वाणी जी, हीरविजयसूरि जगगुरु गाऊं, परमाणंद चिति आणी जी ।
जय जय जय जगगुरु गछपति गुरुओ।. रचनाकाल-संवत पन्नर ? (सोल) वावने आसो वदि सातमि जाणजीरे,.
परमानंदे ऊनागढ़े रचिओ हीरनिर्वाण जी। रचनाकाल सं० १५५२ हो ही नहीं सकता क्योंकि सूरि (हीरविजय) जी का निर्वाण तब नहीं हुआ था। इसलिए यह सं० १६५२ ही होगा। यह रचना ऊनागढ़ में हई और इसका नाम केवल 'हीर निर्वाण' ही कवि ने लिखा है। यह १०२ कड़ी की रचना है। अन्तिम कड़ी की दो पंक्तियाँ निम्नांकित हैं---
तास चरणसेवाकर परमाणंद भल सीसे जी रे,
बोल्या गुण जगगुरु तणा, जयवंता जगिदीसे जी रे ।१२०।' परमानन्द (३)-तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्य विजयसेनसूरि के शिष्य थे। इन्होंने सम्वत् १६७१ से पूर्व नानादेशदेशीभाषामय स्तवन लिखा है। विजयसेन सूरि सम्बत् १६७१ में स्वर्गवासी हुए थे, अतः यह. उससे पूर्व ही रची गई होगी । आदि त्रिभुवनतारण तीरथ पास चिंतामणी रे,
कि विजय चिंतामणि रे; चाति चतुर प्रिउ यात्रि जाइइ इम भणइ भामनी रे । प्रिय सेज वालि जो तारा वि कि धवल धुरंधरा रे ।
तस सींगि सीवनषोलि कि धम धम धूधरा रे। इसकी अन्तिम पंक्तियाँ देखिये
इम सकल तीरथ सबल समरथ, पास त्रिभुवन नुं धणी।
तपगछि जिणइ जयकार दीघु तिणइ विजयचिंतामणी। १. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २७८-२७९ (द्वितीय संस्करण) तथा भाग:
१ पृ० ३१० (प्रथम संस्करण).
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