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- गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
सं० १६४८ महा शुद १० शनिवार को शील विषय पर प्रभावती चौपाई लिखी इसकी भाषा पर पंजाबी प्रभाव परिलक्षित होता है । उदाहरणार्थ निम्नलिखित पंक्तियाँ देखिये-
दिन दिन प्रतन श्री गच्छनायक श्रीपत पटे भावंदा, साधु सुधर्मा ने गति चले, गुण छत्तीस सुहावंदा । आचारज चिरजीवो तेजसिंघ, चौरासी गछ- गुण गावंदा तास गच्छ थेवर अति उत्तम तपजप क्रिया-दिपावंदा |
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कवि ने अपना संक्षिप्त परिचय इन पंक्तियों में दिया हैदिन-दिन प्रतपो श्री गुरु मेरा श्रीराजसिंघ मुनिंदा ॥९३ तास शिष्य निर्मल मति जाका मुनि फेरु जग भावंदा | तसु सुत लघु गुरु भाई परमा, शील तणा गुण गावंदा ॥ ९४
अर्थात् कवि के गुरु राजसिंह थे । कवि के पिता फेरु भी उनके शिष्य थे । इस प्रकार गृहस्थ जीवन के पिता फेरु वैराग्य जीवन में गुरुभाई थे । परमा ने यह गीत शील के माहात्म्य पर लिखा है । '
परमानन्द - खरतरगच्छीय पुण्यसागर के प्रशिष्य एवं जिनसुन्दर के शिष्य थे । इन्होंने सम्वत् १६७५ में 'देवराजवच्छराज चौपइ' की रचना मरोठ में की।
श्री देसाई ने परमानन्द को खरतरगच्छीय जिनसागर सूरि शाखा के जीवसुन्दर का शिष्य बताया है । लगता है कि जिनसुन्दर की जगह जीवसुन्दर भ्रमवश लिख पढ़ लिया गया है, ' क्योंकि रचना का नाम हंसराज वच्छराज चौपइ ही लिखा है और रचनाकाल सम्वत् १६७५ - तथा स्थान मरोठ लिखा है । अतः काफी सम्भावना है कि उक्त दोनों नाम एक ही व्यक्ति के हों और रचना के नाम में देवराज और हंसराज का हेरफेर हो गया हो ।
परमानन्द ( २ ) - तपागच्छीय आणंदविमलसूरि > श्रीपति > हर्षाणंद के आप शिष्य थे । आपने सं० १६५२ में 'हीरविजयसूरि निर्वाण' १. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २४५-४६ (द्वितीय संस्करण ) और भाग ३ पृ० ७९१-९२ (प्रथम संस्करण )
-२. श्री अगरचन्द नाहटा - परम्परा पृ० ७२
३. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ९७२ (प्रथम संस्करण ) और भाग ३ पृ० १८८ (द्वितीय संस्करण )
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