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'पद्मसुन्दर
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तथि संख्याइ तथि जांणयो सुरगुरु उस्ताद वार मांनयो । इसमें 'उस्ताद' शब्द का प्रयोग दर्शनीय है।
रत्नमालारास (गा० १३८, सं० १६४२ कार्तिक शुक्ल १०, सोमवार, चाडा)। इसका रचनाकाल इस प्रकार कहा गया है
सोमकला संवत संवछर दोइ अधिक च्यालीस,
गीता छन्द इहां अहरचीउ माणिक्यसुन्दर सीस । रत्नमाला ने प्राणों की परवाह न करते हुए अपने शील की रक्षा की-यही उपदेश इस कृति का है ।
श्रीपाल चौपइ (गा० २४५, सं० १६४२ कार्तिक वदी ७, गुरु, चाडा) कवि ने इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया है
आठ दोओ सम्वत् बिच्यार, बरस धुरिइते मास विचार, सतमि सांमा नइ गुरुवार, चाडि रास रचिउ सुविचार ।' इसका अन्तिम कलश निम्नांकित है
वरिसवि सुखराय श्रीपति दीन दानिइ ऊधरिउ, साधदानि राजा राम अणि २ लीला वरिउ । आपदा सवि दूरी कीधी सम्पदा वंछित फली,
सहित समकित दांन देतां दूध जिम साकर भली । ऊपर की तीनों रचनायें ईशानचंद्र चौपइ, रत्नमाला रास और श्रीपाल चौपइ सम्वत् १६४२ के कार्तिक मास में चाडा में ही लिखित बताई गई है, आश्चर्य होता है कि कवि कर्म में पद्मसुन्दर को कितना लाघव प्राप्त था कि उन्होंने इतनी बड़ी रचनायें मात्र एक माह में एक ही स्थान पर पूरी कर डालो।
कथाचूड़ चौपाई (स. १६६४ माग० वदी १ गुरु, चाडा) इसका आदि देखिये
परम अरथ जेणि साधीउ, ते प्रणमूत्रिणिकाल, सरसति सुगुरु पसाउलि, कहुँ चुपै रसाल ।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० १८०-१८२ (द्वितीय संस्करण)
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