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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद इतिहास भी प्राप्त हैं। इनमें से कुछ का विवरण-उद्धरण नमूने के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है । ___ श्रीसार चौपइ (गा० ३५८ सं० १६४० चाडा)। श्रीसारराजा अपनी मनमोहनी पत्नी के मोह में पड़कर तमाम जगहों में भटकता और अनेक कष्ट पाता है। प्राचीनकाल से लोगों में यह दन्तकथा प्रचलित थी। उसी के आधार पर कवि ने यह रचना प्रस्तुत करके जनता को मोह से मुक्त होने का संदेश दिया है। कवि ने लिखा है
म करु मोह इम जाणीनइ, पालुश्रीजिनवाणि संवत् कमलिणिपतिकला, संवछरवि बीसजाणि ॥५६॥ दंतकथा इम सांभली, समंध कोसइ आधार,
चउपइ कही मन रीझवा, चाडा गाममझारि ।' ईशानचन्द्र विजया चौपइ (गा० ५११, सं० १६४२ कार्तिक, शुक्ल १५, गुरुवार, चाडा, तरंगा जी के पास) यह रचना जैन धर्म के महत्वपूर्ण सिद्धान्त सम्यक्त्व की महिमा पर प्रकाश डालती है। दष्टान्त रूप में ईशानचन्द्र विजया की कथा 'कथाकोश' से ली गई है । कवि ने लिखा है
सुगुरु आंणसरिनीति वहूं, श्रुत जोइ आधार, कथाकोसि चुपै कहूँ, मतिहोयो मुझसार । जैनधरम अगिदोहल, जासमूल समकित, प्रथम मनिइं राख खरं सत्रमित्र समचित्त ।
इसके अन्त में रचना तिथि और गुरु परम्परा इस प्रकार कही गयी है
बिवंदणीक पंडित गुरुराय, माणिक्यसुन्दर पणमी पाय, संवत् चंद्रकलाजांणीइ, वरस अह हइइ आंणीइ । करम तणा बीजा जे सार, धरम तणा जेतला प्रकार, इम सम्वछर जांणु सही, मास वरस धुरिजे कही।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० १७८-१८५ (द्वितीय संस्करण ) और
भाग ३ पृ० ७५६- ७६४ (प्रथम संस्करण)
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