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पद्मसुन्दर
२७९ है कि दोनों पद्मराज एक ही व्यक्ति हों पर निश्चित प्रमाण के अभाव में अंतिम निर्णय शोधी विद्वानों के लिए छोड़ दिया जाता है।
पद्मविजय -आप तपागच्छीय हीरविजयसूरि के शिष्य थे । आपने सं० १६५२ से पूर्व ही 'तीर्थमाला' की रचना की। इसे 'तीरथमालागुणस्तवन' भी कहा गया है । इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है
समरसि समरसि सरसति, वरसति वचनविलास, तू तूठी मुझ आपजे, सांचो वचन विलास । वाणी वाणी इम भणे, तू तूठी अकंति,
कवि केलवणी केलवइ, केवल आंणे खंति । इसका अन्तिम कलश इस प्रकार है
अ तीरथमाला गुणविशाला कंठपीठजेठवे, तसमुगतिबाला अतिरसाला वरणवरमालाठवे । श्रीहीरविजयगुरु सुरिपुरंदरसीस पद्मविजयकहे,
जे सुगुणगुणस्ये अने सुणस्ये मंगलमाला ते लहे ॥' पद्मसुन्दर (१)-खरतरगच्छीय देवतिलक उपाध्याय के शिष्य विजयराज आपके गुरु थे। आपने सं० १६५१ में 'प्रवचनसारोद्धार बालावबोध' लिखा। इनकी कोई पद्य रचना नहीं मालूम है, अतः ये गद्य लेखक ही प्रतीत होते हैं।
पद्मसुन्दर (२)-आप बिवंदणिकगच्छीय माणिक्यसुन्दर के शिष्य थे। इनकी अनेक उत्तम काव्य रचनायें उपलब्ध हैं जिससे प्रकट होता है कि ये अच्छे कवि थे। श्रीसार चौपइ या रास, ईशानचन्द्र विजया चौपइ, रत्नमालारास, श्रीपाल चौपइ रास, कथाचूड चौपइ, कनकरथरास, श्रीदत्त चौपइ आदि आपकी प्रमुख काव्य रचनायें प्राप्त हैं। इनके अतिरिक्त उपशमसंज्झाय आदि कई लघुकाव्य कृतियाँ
१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २७८ (द्वितीय संस्करण) और भाग
१ पृ० ३०४ (प्रथम संस्करण) २. वही, भाग २ पृ० २७२ (द्वितीय संस्करण) और भाग ३ पृ० १५९७
(प्रथम संस्करण)
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