________________
२७८
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसउ लोभ जीपइ जीके, आणी मन संतोष,
मुनिवर क्षुल्लकुमार जीम, ते पामइ सुखखेम ।' इस रचना में कवि पद्मराज ने क्षुल्लककुमार के जीवनादर्शों के आधार पर यह उपदेश दिया है कि संतोषपूर्वक लोभ पर विजय पाना बड़ा पुरुषार्थ है। इस चरित्र की भाषा प्रांजल और प्रसादगुण सम्पन्न है।
'भगवद्वाणी गीत' नामक छह कड़ी की एक छोटी रचना के लेखक भी पद्मराज हैं, किन्तु ये पुण्यसागर के शिष्य और क्षल्लककुमार चरित्र आदि के लेखक हैं या कोई अन्य, यह निश्चित नहीं हो सका क्योंकि गीत का जो अंश श्री देसाई ने जैन गुर्जर काविओ में उद्ध त किया है उसमें गुरुपरंपरा नहीं है। यह गीत सं० १७६४ से पूर्व लिखा गया है। इसके लेखक पद्मराज को ज्ञानतिलक का गुरु कहा गया है। ज्ञानतिलक का समय सं० १६६० है अतः यह निश्चित है कि ये पद्मराज निश्चित रूप से १७वीं शताब्दी के ही कवि हैं । अतः इनको रचना का उद्धरण प्रस्तुत किया जा रहा है--- आदि-वाणी तौ वीर तिहारी त्रिभुवनजन मोहन गारी
जिनवरवाणी बे। वाणी तौ सबही सुहामणी श्रवणकुं अमृत समांणी जि० । वाणी तौ घन जिम गाजइ बहु राज जुगुति करी छाजइ जि० ॥
अंत- वाणी तौ ईष रसाला रिझइ सब बाल गोपाला जि०।।
इण वाणी ते कोइ न तोलइ श्री पद्मराज इम बोलइ जि । यह गीत राग सारंग में आबद्ध है और गेय है। इसकी प्रति रत्नसिंधु द्वारा सं० १७६४ में पाटण में लिखी गई थी। काफी सम्भावना
१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २६५ (द्वितीय संस्करण), भाग १ पृ०.
३९३ और भाग ३ पृ० ८७५-७७ (प्रथम संस्करण) २. वही, भाग ३ पृ० ३६६ (द्वितीय संस्करण) ३. वही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org