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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का वृहद् इतिहास नोबो-आपका इतिवृत्त नहीं प्राप्त हो सका। आपने सं० १६७५ से पूर्व 'आदिनाथ विवाहलो' नामक काव्य की रचना की । यह २४५ गाथा की रचना है।' इसके अतिरिक्त कोई सूचना न तो कवि के सम्बन्ध में प्राप्त है और न कृति के बारे में।
नेमिविजय-तपागच्छीय विद्याविजय आपके गुरु थे। आपने सं० १६९५ आसो सुदी ३ रविवार को 'अमरदत्त मित्रानंद चौपाई' की रचना २४ ढाल में की। इसकी प्रति त्रुटित है, अतः आदि और अन्त के आवश्यक विवरण अज्ञात हैं । रचनाकाल अवश्य उपलब्ध है, यथा---
सोलइ पंचाणूइ वरषइ, आसोजइ त्रीज रवि हरषज्ञ,
सहु श्रावक चतुर सुजाण... के पश्चात् त्रुटित है किन्तु इतना निश्चित हो जाता है कि यह रचना सं० १६९५ की है। इसमें गुरु परम्परा भी दी गई है जिसके अन्तर्गत तपागच्छीय विजयदेव से लेकर विद्याविजय तक का उल्लेख है। २३वीं ढाल की अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
राग रामगिरि कहीजइ, त्रेवीसमी ओ ढाल रे,
नेमविजय कहइ कंठि कहता, रंजइ नर भूपाल रे । इन पंक्तियों से अनुमान होता है कि कवि अच्छा गवैया था और अपनी रचना को स्वयं गाकर सुनाता था। श्रोता उसके कंठ की प्रशंसा करते होंगे। मित्रानंद की कथा के माध्यम से कवि ने क्रोध, कषाय आदि पर विजय प्राप्त करने का मनुष्यों को संदेश भी दिया है, यथा--
थोड़ेइ क्रोध न कीजइ, जिण धरम तणां फल लीजइ, सुणी मित्रानंद अधिकार, सहु छोड़ो क्रोध संसार । अ च उपइ सरस अपार, शांति चरित्र थी कीउ उद्धार,
लही सद्गुरु नो आदेस ओडी म्हइं सरस विशेष । यह कथा शांति चरित्र पर आधारित है और शांति का संदेश देती है ।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ९७१ (प्रथम संस्करण) और भाग ३ पृ०
१८८ (द्वितीय संस्करण) २. वही, भाग ३ पृ० ३११-१२ (द्वितीय संस्करण) और भाग ३ पृ० १०६०
६१ (प्रथम संस्करण)
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