________________
नारायण
२७३
श्री जिननायक भाव सुवंदु हुं जगदाधार, वर्द्धमान स्वामी जयु सेवकजन हितकार ।
अन्त-नेम यदुपति जामलि दुष्कर महाव्रत घाट,
श्री सद्गुरु सुपसाउलिउ, मि रचीउ रे खंड बीजु सार रि ।३९। सासन सोहकर समरचंद मुनीवरा, धर्मधोरंधर धीर, अति उदार सहिक गुण तेहने निति-निति रमइ कवी मन कीर । तस शिष्य ऋषि नारायण हरष सु, इम भणि वचन रसाल, जेह भावि भणइ मोद आणी तेहनइ मंगलमाल ।४१।' नारायण (२)----आप लोकागच्छीय रूप ऋषि के प्रशिष्य एवं जीव राज ऋषि के शिष्य थे। आपने भी 'श्रेणिकरास' नामक काव्य की रचना ४ खंडों में की है। यह ५०५ कड़ी की विस्तृत रचना सं० १६८४ आसो वदी ७ गुरुवार कल्पवल्ली में रची गई। ये दोनों कवि न केवल समसामयिक हैं बल्कि समस्थानिक भी हैं और एक ही विषय श्रेणिक पर दोनों ने रचनायें की हैं। पर दोनों की गुरु परंपरा और रचनायें भिन्न-भिन्न है, इसका भी प्रारम्भिक अंश फटा है अतः आदि नहीं दिया जा सकता । इसके चौथे खंड की कुछ पंक्तियां देखिये
श्रेणिक राय तणु मनमोहन, सुद चरित्र उराल,
चउथउ खंड चतुरचितरंजक, भाष्यू अह रसाल। रचनाकाल एवं गुरु परंपरा
श्री जिनशासन शुद्ध प्ररूपक रूप ऋषीश्वर जाणु, तेह तणइ पाटिइ गछनायक श्री जीवराज बखाणु राग धन्यासी करी सून्दर बत्रीसमी ओ ढाल, मुनी नारायण इणि परि जंपइ, सुणतां अतिहि रसाल । वेद वसु रस चंद वरसइ आसो वदि पक्ष सार ओ, कल्पवल्ली मांहि रचीउ सप्तमी गुरुवार ऑ। बहुरंग आणी भविक प्राणी लाभ जाणी मति अती,
मधुरवाणी सरस जांणी भावि भणज्यो शुभमती ।२ १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० २४६-२४७ (द्वितीय संस्करण) और भाग
१ पृ० ५१५-१९ तथा भाग ३ पृ० ९९८-९९ (प्रथम संस्करण) २. वही, भाग ३ पृ० २५९-६० (द्वितीय संस्करण) तथा भाग ३ पृ० १००० (प्रथम संस्करण)
१८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org