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अंत
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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आदि
श्री जिनवयण आराधीइ, आणी हरष अपारों रे, त्रिसलासुत नामइं सदा, लहीइं ज्ञान उदारो रे। श्री रतनसागर गछपति ऊपम नेमकूमारो रे,
प्रात समय प्रेमई नमु छकाय आधारों रे । अन्त-- ज्ञाताधर्म कथांग मांहि इम भासीउ जगनाह,
ढाल कही अकवीसमी मनसुधिइं रे भणतां बहुलाह । यह रचना ज्ञाताधर्म की कथा पर आधारित है।
१८ नात्रासंझाय' ३८ कड़ी की लघु कृति है । इसकी पहिली कड़ी निम्नवत् है
वंदु श्री जिन सुखदातार, त्रिसलानंदन जगदाधार, सुणिरे भविया कर्म विचार, मत कोइ संचो कर्मभंडार, सुणिरे । अनंत सुख सुप्रेम आणी सेवीइ जिनदेव अ, दयाधर्म गुरु साध केरी कीजिइ नित सेव । समरचंद ऋषिराय जसधार तास पाय नमेव ,
मुनि नारायण वंदि रंगइ साधुवयण सुणेव ।' इनकी प्रसिद्ध रचना 'श्रेणिकरास' दो खंडों में विभक्त है । इसका आदि देखियेपरम पुरुष प्रणमु सदा, श्री महावीर जिणंद,
त्रिसलानंदन जग गुरु इसमें मगध सम्राट् श्रेणिक अर्थात् बिम्बसार का वर्णन किया गया है। कवि कहता है
प्रथम जिणेसर श्रेणिक सार, होसइ भरत क्षेत्र मझारि,
तेह तणुं छइ चरित्र रसाल, भणतां सुणतां मंगल माल । प्रथम खंड की अन्तिम पंक्तियां इस प्रकार हैं
श्रेणिक अभयकुमार चरित्र, भणतां सुणतां अतिहि पवित्र, मुनि नारायण कहि शुभवाणि, प्रथम खंड संपूर्ण जाणि । दूसरे खंड का प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है१. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ५१५-१९ और भाग ३. पृ० ९९९ (प्रथमा
संस्करण)
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