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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अकबर की धार्मिक नीति-महान मुगल सम्राट अकबर धर्म के मामले में उदार और समन्वयवादी था। उसकी उदारता परिस्थितियों और परिवेश की उपज थी। सूफी और वैष्णव सन्तों की प्रेममय वाणी से दोनों सम्प्रदायों की कटुता काफी कम हो गई थी। भक्ति आन्दोलन के फलस्वरूप ऐसा वातावरण बना जिससे हिन्दू मुसलमान ऐक्य का कठिन मार्ग कुछ प्रशस्त हुआ । “भक्ति व सूफी आन्दोलनों ने हिन्दू धर्म और इस्लाम के बीच एक आध्यात्मिक अन्तरंगता की स्थापना की। इसका सुपरिणाम महान् मुगलों के काल में मिला । अकबर के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय साम्राज्य में विभिन्न जातियों, धर्मों और मतों की स्थापना हई। अकबर की माँ एक सूफी विद्वान् की पुत्री थी। उसकी हिन्दू रानियों और बीरबल, टोडरमल, तानसेन और मानसिंह जैसे हिन्दू मित्रों ने उसके दृष्टिकोण को उदार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। अकबर ने इस्लाम के साथ-साथ हिन्दू, जैन, बौद्ध, ईसाई, पारसी आदि सभी प्रमुख धर्मों का अध्ययन किया। इन धर्मों के आचार्यों को बुलवा कर सत्संग किया। प्रवचन सुना और विभिन्न धर्मो के मूल सिद्धान्तों की एकता पर गौर किया। अन्ततः वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि धर्म के क्षेत्र में शासक को समभाव और निष्पक्ष रहना ही उचित है। उसने सं० १६३२ में धार्मिक शास्त्रार्थ के लिए एक 'इबादतखाना' बनवाया जहाँ प्रत्येक बृहस्पतिवार की रात्रि से ही शास्त्रार्थ प्रारम्भ होकर शुक्रवार को दोपहर तक प्रायः चलता रहता था। वह राष्ट्र का धार्मिक नेतृत्व भी करना चाहता था। इसलिए उसने सं० १६३६ में 'दीन-इलाही' (ईश्वर का धर्म) का प्रवर्तन किया । यह काल धार्मिक क्रान्ति और सुधारों का था । १५वीं शती में कबीर पंथ से प्रारम्भ होकर दादू पंथ, यारीपंथ, सिख पंथ आदि निर्गुण सम्प्रदायों की स्थापना ने धर्म के क्षेत्र में क्रान्ति का सूत्रपात कर दिया था। इसी क्रम में जैन परम्परा में लोकागच्छ और तारण पंथ नामक अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का आविर्भाव हुआ। अकबर के 'दीनइलाही' को भी इसी रूप में देखा जाना चाहिये । अबुलफजल ने लिखा है कि उसका दरबार प्रत्येक धर्म और सम्प्रदाय के विद्वानों से सुशोभित था। क्रिश्चियन पादरी बार्टीली का कथन है कि अकबर का आन्तरिक विचार कोई नहीं जानता था, और सभी उसे अपना ही १. डा० राधाकमल मुकर्जी – भारत की संस्कृति और कला पृ० २८ और,
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