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उपोद्घात
में विविध विषयों की प्रायः २४ हजार से भी अधिक पुस्तकों का उत्तम संग्रह था । ' तबकाते अकबरी' से मालूम होता है कि अकबर विद्वानों को प्रोत्साहन, संरक्षण और पुरस्कार भी देता था। फैजी, अबुल फजल, कादिर बदायूनी, गंग और रहीम खानखाना का नाम उक्त ग्रन्थ में उल्लिखित है । मध्यकालीन भारतीय समाज और संस्कृति पर इस्लाम का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था, जिसके लिए अकबर के समय में अनुकूल वातावरण का निर्माण हुआ ।
जैनसंघ के साधु-सन्तों के साथ ही श्रावक-श्राविकाओं तथा सेठसाहुकारों ने भी राज परिवार से सम्बन्ध बनाकर धर्म की प्रभावना में अनुपम योगदान किया । पेथड़, जगड़सा, जावड़ भावड़, समराशा, कर्माशा, खेमाहडालिया, भामाशाह, आदि सैकड़ों लक्ष्मीपुत्रों, वीरों और बुद्धिमानों ने अपने धन, बल और बुद्धि से समाज की सेवा की है और जैनधर्म का प्रभाव बढ़ाया है । इन लोगों का शासन में भी अच्छा प्रभाव रहा अतः आवश्यकतानुसार इन्होंने शासन और धर्म को समीप लाने में सहयोग दिया ।
१६वीं शताब्दी में जैनधर्म कई मत-मतान्तरों में बँटा हुआ था । वि० सं० १५६४ में कडुवाशाह ने कडुवापंथ चलाया । वि० सं० १५७२ में विजयसूरि ने विजयमत और सं० १५७४ में पार्श्वनाथ ने पार्श्वमत ' की स्थापना की । वि० सं० १५९९ में जब लोकाशाह ने लोकामत की स्थापना की तो इनके सुधारवादी आन्दोलन का मूर्तिपूजकों ने विरोध किया । इस प्रकार इस युग में जहाँ जैनसंघ में विभाजन की प्रक्रिया तीव्र हो गयी थी वहीं दूसरी ओर जैन साधुओं में आचार - शिथिलता भी बढ़ गई थी । कुछ आचार्यों ने बीच-बीच में क्रियोद्धार का प्रयत्न अवश्य किया किन्तु कोई ऐसा प्रभावशाली व्यक्तित्व नहीं उभड़ा जो समग्र जैनसंघ को समन्वित रूप से संघटित कर सके । यह कार्य १७वीं शताब्दी (विक्रमीय) में अग्रसर हो पाया क्योंकि इस शताब्दी में ऐसे अनेक साधुसन्त, आचार्य - विद्वान् और लेखक- सुकवि अवतरित हुए जिन्होंने धर्म की प्रभावना और समाज की सुदृढ़ता के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया इनमें हीरविजयसूरि, जिनचन्द्र सूरि, भानुचन्द्र, समयसुन्दर आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । इनका तत्कालीन सम्राट् अकबर और जहाँगीर से सम्बन्ध भी अच्छा था ।
१. श्री विद्याविजय सूरीश्वर अने सम्राट् पृ० १७
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