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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहासा सकल वासव सयल वासव वसय पयमूल, नमस्यु निरंतर भक्तिभर सांतिकरण चौबीस जिनवर,
नेमिनाथ बावीसमो सयल रयण भंडार सुहकर ।' आत्मप्रतिबोध कुलक-इसकी अन्तिम पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं
अ आतमा प्रतिबोध अनोपम, जे भणसिइ नरनारी, संभलसि जे वली सुखकारी, ते सही तुच्छ संसारि । जुहार मित्र स्यु रंगि मिलसि, ते तरसई संसार,
धर्म प्रभावि सदाफल सुदर, नित-नित जयजयकार । शंखेश्वर पार्श्व स्तवन अथवा छंद १३२ कड़ी। यह संस्कृत तथा गुजराती मिश्रित रचना है । यह रचना 'त्रण प्राचीन गुजराती कृतियों, नामक संकलन में शार्लोटे काउजी के सम्पादन में प्रकाशित है। इसकी अन्तिम पंक्तियाँ देखिये
बुध भानुमेरु सेवक भणइ, स्वामी मया साची करु,
नयसुदर शिष्य संपतिकरण जयउ पास शंखेसरु । शांतिनाथस्तवन ६४ कड़ी, यह एक सुदर भक्ति काव्य है । इसका आदि देखिये
जिनमुख पंकजवासिनी तत्त्वबुद्धि प्रकाशिनी, विकासिनी मुझ मुख नयण-कमल सदा अ सो सामिणि हीयडि धरूं, मिथ्या मति सवि परिहरु,
स्तुति करूं शान्ति जिणंद तणी मुदा । इस प्रकार हम देखते हैं कि नयसुदर विद्याविनय-संपन्न साधु एवं श्रेष्ठ साहित्यकार थे। इन्होंने अनेक उच्चकोटि की रचनायें की है तथा सदैव नम्रतापूर्वक भूलों के लिए क्षमा याचना की है । इनकी भाषा और काव्यकला सम्बन्धी क्षमता प्रायः अधिकांश जैन साधु लेखकों से अधिक सम्पन्न एवं पुष्ट है, श्री देसाई ने इनका नाम सर्वत्र नयसुन्दर लिखा है। इन्होंने स्वयं अपनी रचनाओं में अपना यही नाम दिया है पर डॉ हरीश शुक्ल ने इनका नाम नयनसुदर दिया है यद्यपि
१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० १०८ (द्वितीय संस्करण) २. वही, भाग १ पृ० २५४-६७, भाग ३ पृ० ७४८-५५ (प्रथम संस्करण)
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