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नयसुन्दर
सुविशद मनो यस्य व्याप्तं शमामृतसिंधुना, नयनयुगलं यस्याप्यासीत कृपाषयसाविलम् । हरिरविगुणानयस्य प्रोक्त न याति समर्थता,
स मम हृदय वीरस्वामी स्थिरि भवताच्चिरम् । गुरु परम्परा के अन्तर्गत बड़तपगच्छ के धनरत्न, अमररत्न, तेजरत्न, देवरत्न, विजयसुन्दर, धनरत्न और भानुमेरुगणि का सादर स्मरण किया गया है। भाषा के नमूने के लिए इस रचना का कलश उद्धृत किया जा रहा है
चउवीस जिनवर सदा सुखकर चरण तास आराहइ, संभली गुण श्री साधू जीना अह अरथि उमाहिइ। उवझाय नयसुन्दर सुवाणी भणु चित्तचोखू करी,
बली गुण सद्गुण संभलु अध दहु लहु निवृत्तिपुरी।' रूपचंदकुंवर रास-यह आनंदकाव्य महोदधि में प्रकाशित है। इसकी रचना तिथि १६३७ मागसर शुक्ल ५ रविवार से प्रायः सभी सहमत हैं, रचना बीजापुर में हुई। इसमें रचनाकाल कवि ने इस प्रकार कहा है
लघु विनती नयसुन्दर वाणि, छट्टो खंड चड्यो परिमाणि । मुनि शंकरलोचन रसमान भेले इंदु जो सावधान । जैनकाव्य का प्रयोजन बताता हुआ कवि लिखता है
कवित कवित करी सहुको कहे, कवित भाव तो विराग लहे, सोइ कवित्त जेणे दुश्मन दहे, पंडितजन परखी गहगहे। इसलिए काव्य का अंत शम या शान्ति में ही होता है। कवि का यह कथन बड़ा महत्वपूर्ण है
प्रथम शृङ्गाररस थापियो, छेड़ो शांतरसे व्यापियो,
वोल्या चार पदारथ काम, श्रवण सुधारस रास सुनाम । कवि कहता है कि श्रोता यदि अप्रतिबद्ध हो तो कवि की रचना कुशलता वैसी ही विफल होती है जैसी अंधपति की संवरी-सजी नारी की शोभा व्यर्थ होती है, यथा१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० ९४ (द्वितीय संस्करण) २. वही, पृ० ९७
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