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नयविजय
२५९ नयविजय -आप तपागच्छीय विजयसेन सूरि के शिष्य थे । आपने सं० १६४४ आसो शुदी १० को 'साधुवंदना' की रचना पाटण में की। इसकी भाषा परिष्कृत एवं काव्योचित है। उदाहरणार्थ निम्न पंक्तियाँ देखिये -
कंदकली परि निर्मली सकल कला गुण वेलि, मझ मनमानसि झीलती, हंसासणि करि केलि । ऊं नमो श्री ऊसह जिण, सिद्ध वधू उरि हार,
केवलनाण दिवायरु सिद्धि बुद्धि दातार ।' गुरुपरंपरा-संप्रति नरक्षेत्रि विहरता, जिण नाणी मुणि कोडि,
जगगुरु गुणनिधि हीरजी, वंदु बे कर जोडि । तस पट्टालंकार हार श्री विजयसेन गणधार,
तस पद प्रणमी हुँ रचुं, मुनिवंदन विस्तार । इसमें साधु या मुनि की वंदना की गई है। रचनास्थान एवं समय
पुण्य पवित्त पाटण पुरवरि, साधु वंदनावर जांण,
संवत भू रस वेद जुग वरसिं, विजया दिनि सुप्रमाण । इसका अन्तिम-'कलश' इसकी भाषा-शैली के उदाहरणार्थ प्रस्तुत है
श्री हीरविजयसूरि पट्ट धुरंधर, प्रवर गुणमणि सायरु, श्री विजयसेनसूरिंद तपगछतिलक संघ सुहकरु । तस पादपद्मपराग तिलकित नयविजय गुरुपद भजि, परमेष्टि थुणतां संपदी आनंद सुख वृद्धि संपजि ।
जैन गुर्जर कविओ में जंबूस्वामी रास का भी श्री देसाई ने इन्हीं को बताया था किन्तु गुरु का नाम कुशलविजय बताया था। नवीन संस्करण के संपादक का विचार है कि यह रचना १८वीं शताब्दी के कवि नयविमल की है जिनके गुरु का नाम कुशलविजय था। यह भूल से नयविजय के साथ छप गई थी। अतः उसे छोड़ दिया गया है। १. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २३२-२३३ (द्वितीय संस्करण), भाग ३
पृ० ७७७-७८ (प्रथम संस्करण) २. वही, भाग २ पाद टिप्पड़ी पृ० २३३ (द्वितीय संस्करण)
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