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नगर्षिमणि
२५३.
समरिय सरसति देवि सुगुरुचरणनमी, चउवीसी जिनवर तणी ओ। निज निज भव परिमाण, कहण थकी सुणु,
निरमलभगति धरी धणी । रचनाकाल --चंद्र अनइ रस जाणीइ तु भमरुली,
सुमति (समिति) मुनी परिमाण । श्रावण सुदि दसमी गुरु सा भमरुली, ..
वरिस वार तिथि जाण ।' अंतिम पंक्तियाँ-तपगछ गयण दिणेस समुवडि श्री विजयसेन सूरीसरा,
कवि कुशलवर्द्धन सीस पभणइ, नगागणि वंछियकरा' (बडली मंडन) वंध हेतु गभित वीर जिन विनति स्तवन (५३ कड़ी) की रचना सं० १६९८ से पूर्व हुई। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ निम्नवत् हैं
सकल मनोरथ पूरणो वंछित फल दातार ।
वीर जिणेसर नायक जय जय जगदाधार । इसमें कर्मबंध पर विचार किया गया है, यथा--
सत्तावन्न हिति करी, करमबंध विचारि, बंधण बांध्यो चोर जिम, भमीऊं अपार । करम विपाक तणो घणो, अरथ कह्यो तइ जेह,
गुरु मुखई मइ श्रवणइ सुण्यो, सुणज्यो भवियण तेह । अन्त-इय वीर जिनवर सयल सुहकर नयर वडली मंडणो, मि थुण्यो भगति प्रवर युगति,
(पाठान्तर-भलीय सुगति) रोगसोग विहंडणों। तपगच्छ निरमल गयण दिणकर श्री विजयसेन सुरीसरो, कवि कुशलवर्द्धन सीस पभणइ, नगा ऋषि मंगलकरो।२ आपकी रचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आप
१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० १८८ (द्वितीय संस्करण) २. वही, भाग २ पृ० १८९ (द्वितीय संस्करण) और
भाग १ पृ० २६८-६९ तथाः २९०, भाग ३ पृ० ७९०-९१ तथा। १६०० (प्रथम संस्करण)
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