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________________ धर्मरत्न २४७ माणिक्य सूरि से लेकर कल्याणधीर तक का सादर स्मरण किया गया है। रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है श्री जिनचंद्रसूरि राजइ, कथा कही सुख काजइ, संवत ससिकला मानइ इगतालइ सुय प्रधानइ । आसू मास उदारइ विजयादशमी सितवारइ, आगरा नयर मझारइ सारद तणइ आधारइ । ___'तेरह काठिया संज्झाय' का मात्र नामोल्लेख श्री नाहटा एवं श्री देसाई दोनों ने किया है किन्तु किसी ने विवरण-उद्धरण नहीं दिया है। धर्मसागर ( ब्रह्म)--आप भट्टारक अभयचंद्र द्वितीय के शिष्य थे। आप अच्छे कवि और संगीतज्ञ थे। विभिन्न अवसरों पर भिन्नभिन्न रागों में गीत बनाकर गुरु की प्रशंसा में आप स्तवनादि लिखा करते थे। इस तरह के ११ गीत प्राप्त हैं । ये अधिकतर भट्टारक अभयचन्द्र या नेमिनाथ की स्तुति में लिखे गये हैं। नेमि-राजुल के गीतों में राजुल के विरह और उसकी सुन्दरता का अच्छा वर्णन मिलता है यथा दुखड़ा लोउं रे ताहरा नामनां, वलि वलि लागं छौंपायन रे, बोलडो धोरे मुझने नेम जी, निठुर न थइये यादव रायन रे। किम रे तोरण तम्हें आविया, करि अमस्यु घणो नेहन रे, पशुअ देखी ने पाछा वल्या, स्यु दे विमास्यु मन तेहन रे। इम नहीं कीजे रुडा न होला, तम्हें अति चतुर सुजाणंन रे, लोकह सार तन कीजिए, छह न दीजिए निरवाणिन रे । यह अंश कवि की प्रसिद्ध रचना नेमिगीत से उद्धत है। इसके अतिरिक्त आपकी नेमीश्वर गीत, ग्रुगीत, लालपछेवडी गीत आदि अन्य गीत भी प्राप्त हैं। धर्मसिंह -आप लोकागच्छीय देवमुनि के शिष्य थे। इन्होंने सं० १६९७ में 'शिवजी आचार्यरास' नामक काव्य की रचना सोजत में १. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० २६७-२६८ (प्रथम संस्करण), भाग ३ पृ० ७६४ (प्रथम संस्करण), भाग २ पृ० १९०-१९१ (द्वितीय संस्करण) २. श्री अगर चन्द नाहटा-परम्परा ७६ ३. डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल --राजस्थान के जैन संत पृ० २०७-२०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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