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- मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जिनमाणिक्य का उल्लेख करते हुए कवि ने लिखा है
हिव संप्रति श्री जिनमाणिक्य सूरि सुजाण,
जिणि राजइ करतइ, दीप्यउ संघजिम भाण । अंत-मुनि धर्म मेरु भणंति जे नर संधि हियइ धरइ,
ते लहइ समकित सुणउ भवियण भवसमुद्र सुखउ तरइ ।' अंत में सूचना है-अकादशम अंग विपाक श्रुत विशति अध्ययनानां
सुख दुख विपाकानां संघिरियं समाप्तः ।। धर्ममूति सूरि शिष्य-आप आंचलिक धर्ममूर्ति के शिष्य थे । इनकी रचना का नाम-विधिरास ( १०१ गाथा ) और रचनाकाल सं० १६०६ भाद्र शुदी, फिरोजपुर है । इसका आदि इस प्रकार है
सरसति सामिणि वीन अ, कइकर जोड़ेवि, विधिरास सूत्र विचार, हरषे पभणेवी। जंबूअदीव पन्नात्तिया ओ, इगज्जुग संवत्सरि,
पूछिउं गोयमसामि, कहिउं श्री वीर जिणेसर । रचनाकाल-संवत सोलच्छीलोतरे , भाद्रव सुद इग्यारस,
नगर पेरोजपुरि रास रचिओ, जिहां भोहंड पारस । गच्छ एवं गुरु-अंचलगच्छ विधिपक्ष सकल, तसु कोइ न जीपइ,
श्री धर्ममूरत सूरि गुणगंभीर, बहु दिन दिन दीपइ । रचना का नाम-जिउं मंदिर गिरि चूलिका अ, सोहिं अति चंगी,
विधिरास सब रास भलउ, सुणीयहु मनरंगी ।२ इस प्रकार तमाम विवरण तो हैं किन्तु लेखक का ही नाम कहीं नहीं है।
धर्मरत्न-आप खरतरगच्छीय वाचक कल्याणधीर के शिष्य थे। आपने सं० १६४१ आगरा में 'जयविजय चौपई' की रचना की। इनकी दूसरी रचना 'तेरह काठिया संझाय' भी उपलब्ध है । जयविजय चौपइ में खरतरगच्छ की चोपड़ा शाखा के तेइसवें पाट पर सुशोभित जिन१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ खण्ड २ पृ० १५०३ (प्रथम संस्करण) ____ और भाग २ पृ० १८-१९ (द्वितीय संस्करण) २. वही, भाग २ पृ० ३२-३३ (द्वितीय संस्करण) और भाग ३ पृ० ६५८
६५९ (प्रथम संस्करण)
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