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धर्मभूषण
गछ दिगंबर सकल सुखकर वैशाख सुदि बीजा जाणियइं, दक्षिण देसई सुरजाल्हणां शीलपताका वखाणीइं। देवेन्द्रकीति पटधारी धर्मचंद्र पटोधरु,
धर्मभूषण रची चोपइ, नरनारी सुणयो सुखकरु ।' इसमें दान, शील, तपादि में भी शील का सर्वाधिक महत्व चंपकवती के चरित्र के दृष्टान्त से प्रमाणित किया गया है । प्रारम्भ-परमपुरुष शासन धणी, प्रणमु श्री महावीर,
शील तणां गुण वर्णवु, निर्मल गंगानीर । दान शील तप भावना, शिवपुर मारग च्यार, सरखा छे तो पणि इहां, शील तणो अधिकार । भूषण मांहि चुडामणी, देव मांहि जिम इंद्र,
शील वडो सवि दर्शनइं, तारा मांहि जिम चंद्र ।। इसमें शील की महिमा उपमा अलंकार के माध्यम से कवि ने प्रतिष्ठापित की है। इसमें सोलहसतियों में प्रसिद्ध चंपावती की शीलकथा का वर्णन किया गया है, यथा
सोल सती ग्रंथइं कही, लोक मांहि परसिद्ध,
हे सरखी चंपावती, कथा कहुंअ प्रसिद्ध । अंत में भी कहा है---
चंपावती ना जे गुणगाय, तेहनइलाभघणेरो थाय ।
चंपावती गुणतो नहि पार, मइं भाष्यो माहरी मतिसार । धर्ममेरु–खरतरगच्छीय जिनभद्र के शिष्य सिद्धान्तरुचि थे। इनके शिष्य साधुसोम और साधुसोम के शिष्य कमललाभ थे। आप इन्हीं कमललाभ के प्रशिष्य एवं चरणधर्म के शिष्य थे। आपने सं० १६०४ में 'सुखदुख विपाकसंधि' नामक रचना बीकानेर में की। यह रचना जिनमाणिक्य सूरि के सूरिकाल में लिखी गई। इसमें जिनभद्र से लेकर चरणधर्म तक की गर्वावली दी गई है। कवि ने रचना काल इस प्रकार दिया है
संवत मनु लोचन सइं ऊपरि वलि च्यारि,
विक्रमपुर माहइ शुभ दिवसई शुभ वारइ । १. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० १६८ (द्वितीय संस्करण) २. वही, भाग ३ पृ० ७४६-४७ (प्रथम संस्करण)
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