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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
'जिनसागरसूरि रास' आपकी महत्वपूर्ण रचना है जिसमें जिनसागर सूरि के परिचय के साथ जिनराज सूरि और जिनसागर सूरि के मनोमालिन्य के फलस्वरूप भट्टारकीय और आचारजीय नामक दो शाखाओं में गच्छ के विभाजन का ऐतिहासिक विवरण भी दिया है । यह रास १०३ कड़ी का है और सं० १६८१ पौष वदी ५ को लिखा गया । यह 'ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह' में प्रकाशित है । इसके प्रारम्भ में यह मंगलाचरण है
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श्री वंभणपुरनउ धणी पणमी पास जिणंद, श्री जिनसागरसूरि ना गुण गावं आनंदि ।
इसमें जिनचन्द्र सूरि से लेकर धर्मनिधान तक की गुरुपरंपरा का उल्लेख है । रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है :
तासु शिष्य अति रंग सु अ धर्मकीर्ति गुण गाय संवत सोलह इकासिये, पोष वदि पंचमी भाय । श्री जिनसागरसूरि नु अ रास रच्यो सुखकंद, सुणता नवनिधि संपजे अ, गावां परमानंद ।
इस रास के अनुसार जिनसागर सूरि बीकानेर निवासी बोथरा गोत्रीय साह वच्छा की पत्नी मृगादे की कुक्षि से सं० १६५२ में जन्मे थे । बचपन का नाम चोला था और प्यार से लोग 'सामल' कहकर पुकारते थे । जिनसिंह सूरि के उपदेश से सं० १६६१ में दीक्षा ली । बड़ी दीक्षा राजनगर में जिनचंद्रसूरि से ली और सिद्धसेन नाम पड़ा । कविवर समयसुन्दर के प्रखर शिष्य वादी हर्षनंदन से विद्याध्ययन किया । जहाँगीर से मिलने जाते समय जिनसिंह सूरि का मेड़ते में अकस्मान् निधन होने पर सं० १६७४ में जिनसागर नाम से सिद्धसेन को आचार्य पद दिया गया । प्रस्तुत रास में पदस्थापना के बाद जिनसागर सूरि के विहार और उपदेशों का वर्णन है । गच्छनायक जिनराज सूरि और आचार्य जिनसागर में मनोमालिन्य हो गया और दोनों के साथ लोग विभक्त हो गये । एक शाखा भट्टारकीय और दूसरी आचारजीया कही गई । शाखा भेद होने पर जिनसागर के साथ जिनचन्द्र की शिष्य मंडली के अधिकांश लोग जैसे राजसोम, राजसार,
१. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० १७८-१८९
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