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________________ २४० अंत - हीरविजय सूरि शिष्य सोहाकर, धर्मविजय बुधचंद, शिष्य तेहनो इणि परि जंपइ, धर्म थकी आणंद रे । ऋद्धि वृद्धि, धनहर्ष महोदय, शिवपद होवइ धर्मि, जनमन सकल समीहित पूगइ वलि सुख होइ धर्म । ' मरु - गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास: मन्दोदरी-रावण संवाद - इसके भी रचनाकाल सं० १६१२ पर श्री मो० द० देसाई ने प्रश्नवाचक चिह्न लगाया है । एक रचना १६१२ में और दूसरी सं० १६८१ में कुछ अस्वाभाविक भी लगती है । पंक्तियों का ठीक अर्थ न लग पाने के कारण ही यह भ्रम उत्पन्न हुआ है । रचनाकाल सम्बन्धी पंक्ति इस प्रकार है महासेन वदना हिमकर हरि विक्रम नृपसंवत्सरि जेम मधु नांमि मास कहीजइ, तेथी गुह मुहमास लहीजइ । नवीन संस्करण के संपादक ने इसका अर्थ इस प्रकार सुझाया हैमहासेन वदन = ६, हिमकर = १, हरि १२ - १४, इस प्रकार महासेन का अर्थ षडासन से लिया है फिर भी सं० १६१२ या १४ ठीक नहीं बैठता है। रचनास्थान इस प्रकार कहा गया है ऋषभदेव करइ अनुभावि, श्री सेनापुर नगरि आवि, छंद रच्यो मइ ओणइ राणइ, चतुर होइ तें ततखिण जाणइ । अन्तिम पंक्तियाँ देखिये - हीर विजय सूरीसर केरो, धर्मविजय बुध शिष्य भलेरो । तस शिशु सुधनहर्ष इम कहवइ, धर्म थकी सुखसंपदलहवइ । आपकी रचनाओं से आपके संस्कृत भाषा का ज्ञान एवं पांडित्य प्रकट होता है । आपको अपने प्रगुरु हीरविजय सूरि और महान अकबर की भेंट का निरंतर ध्यान रहता था तथा प्रायः सभी रचनाओं में उसका उल्लेख किसी न किसी प्रकार अवश्य किया है । पण्डिताई प्रदर्शन के चक्कर में रचनाकाल को गूढ़ पहेली बनाकर तिथिज्ञान अनिश्चित कर दिया गया है, पर सामान्यतया रचनाओं की भाषा सरल और प्रसाद गुण सम्पन्न है । धनविमल - आप तपागच्छीय विनयविमल के शिष्य थे | आपने विशालसोम सूरि के समय ( सं० १६८७ से १६९६ के बीच ) 'प्रज्ञापना १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० २०८ ( द्वितीय संस्करण). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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