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________________ २३९ 'धनहर्ष या सुधनहर्ष इशांवक वसु वलि कहुरे, दर्शनमाहवनारि रे, ओ संवत्सर मइ कह्यो रे, पंडित तुम मनिधारि रे।। इसका अर्थ तो सचमुच कोई पंडित ही लगा सकता है। श्री मो० द० देसाई ने भी सं० १६८१ बताकर प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है। पर मुझे लगता है कि इशअम्बक शिव के नेत्र अर्थात् '३' अर्थ लगाकर सं० १६८३ निश्चित किया जाना चाहिए। रचना का आरम्भ आर्या छंद में है, यथा नत्वा श्री विद्यागुरु रम्य श्री विजयसेन सूरींदान, श्री धर्मविजयवुधान गुरुन गुरु निवधियास्माकान । रचना उन्नतपुर (ऊना) में की गई, यथा उन्नतपुर संघाग्रहि रे, स्तवन किआं मति चंग रे, सुघनहर्ष पंडित कहइ रे, भणत सुणत होइ रंग रे ।' अकबर-हीरविजय मिलन की चर्चा इसमें भी है जैसे-- श्री विजयदान सूरिंद पट्टोधर, सूरि गुरु हीरविजयाभिधाना, नगर गांधार थी जेह तेडाविआ, साहि श्री अकबरि दत्तमाना। अकबर ने हीरजी के प्रबोधन से प्रभावित होकर जीवबध-वंदी का फरमान निकाला। पर्व पज्जूसणि दिवस द्वादश लगि कुणि कुण जीवनोवध न करेवा, इस्यां फरमान करि सुगुरुनइ अप्पिआं, नहि कृपा विणि किसी जन्म तरेवा । कवि अपना नाम सुघनहर्ष और धनहर्ष दोनों लिखता है जैसा इसकी अंतिम पंक्तियों से प्रकट होता है तास पद युग्म अम्भोज मधुकर समो, तास शिशु विबुध धनहर्ष भावइ । पंच ओ श्री जिनाधीश संस्कृति थकी, प्रगट हुऊ पुण्य रस सुधा चाखइ ।२ कुरुक्षेत्र विचार स्तवन: आगम सवि तुझ थी हुआ, वली वेद पुराण, __ देखावइ सवि अर्थ तुं, सहस किरण जिम भाण । १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० २०७ (द्वितीय संस्करण) २. वही, पृ० २०८ और भाग १ पृ. ३१२-१३ और पृ० ५०४-५०६ तथा भाग ३ पृ० ९९०-९२ (प्रथम संस्करण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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