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धनजी
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अनुमति लहि सहगुरु तणी, तीजा व्रत अधिकारि,
कहिस कथा सिद्धदत्त की, शास्त्र तणइ आधारि । गुरु स्मरण-सकल जीवनइं हितकरु सु श्री दयासागर नाम ते,
प्रसिद्ध सकल पुहवी विषइ सु, नाम विसउ परणाम ते । तास शिष्य इण परि कहइ सु, मुनि धनजी सुविचार ते, . पुण्य करइ प्राणी जिकेसु,
ते पामइं.सुखसार तेह सुविचारि रे।' धन विजय-१७ वीं शताब्दी में दो धनविजय नामक लेखक मिलते हैं। प्रथम धनविजय विजयसेन सूरि के शिष्य थे, दूसरे तपागच्छीय कल्याण विजय उपाध्याय के शिष्य थे।
प्रथम धनविजय की एकमात्र कृति 'हरिषेण श्रीषेणरास' संवत् .. १६५० के आसपास की रचना है। रचना के संबंध में अन्य विवरण तथा उद्धरण नहीं प्राप्त है, किन्तु लेखक के सम्बन्ध में श्री मो० द०, देसाई ने यह सम्भावना व्यक्त की है कि सं० १६५४ वैशाख वदि १३ को अपने शिष्य गुणविनय के लिए अहमदाबाद में 'हैमब्याकरण वृहद्वृत्तिदीपिका' की रचना करने वाले धन विजय यही होंगे। इससे लगता है कि धनविजय संस्कृत भाषा, व्याकरण और जैनागमोंके बहुपठित विद्वान थे।
धनविजय (ii)-मूलतः गद्यकार थे। इन्होंने सं०.१७०० माघ शुक्ल - पक्ष में खंभात में '६ कर्मग्रन्थ पर बालावबोध' लिखा। लगता है कि धनविजय प्रथम की तरह ये भी संस्कृत, प्राकृत आदि के विद्वान् थे।" इन्होंने ग्रन्थ की प्रस्तावना संस्कृत में इस प्रकार दी है
संयम शत मिति वर्षे माघे मासे सिताभिधे पक्षे, श्री वीरगण मिति तिथौनगरे स्तंभनक पार्श्वयुत्ते, श्री विजयदेव सूरीश्वर राज्ये प्राज्य पुण्य पुण्यतिथौ,
कर्मग्रन्थ व्याख्या 'लोकगिरा' किंतु लिखिते यं। १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ३४३-४४ द्वि० सं० २. वही, भाग १ पृ. २९६ (प्रथम संस्करण) और भाग २ पृ० २६६ (द्वितीय र
संस्करण) ३. वही भाग १ पृ० ६०३ और भाग ३ पृ० १६१२ (प्रथम संस्करण) तथा :
भाग ३ पृ० ३४२ (द्वितीय संस्करण),
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