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देवेन्द्र
२३५ तिरासी। श्री मो० द० देसाई ने इसका रचनाकाल सं० १६३९ से पूर्व बताया है जो ठीक लगता है।'
यह काव्य काफी बड़ा है और इसमें यशोधर के प्रसिद्ध चरित्र का वर्णन किया गया है। लगता है कि देवेन्द्र का संबंध दिगम्बर संप्रदाय से था क्योंकि देसाई इनकी कृति का नामोल्लेख मात्र करके रह गये हैं। उन्होंने न तो कवि के संबंध में और न कृति के संबंध में कुछ लिखा है। यद्यपि रचना बड़ी है और नवरस पूर्ण है पर इसका उल्लेख अगरचंद नाहटा ने भी नहीं किया है इससे अनुमान होता है कि इनका संबंध श्वेताम्बर सम्प्रदाय के खरतर या तपागच्छ से नहीं था, अपितु ये दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध थे।।
देवेन्द्रकोति -दिगम्बर साध सकलकीर्ति की परम्परा में आप भुवनकीर्ति के शिष्य ज्ञानभूषण उनके शिष्य विनयकीर्ति उनके शिष्य शुभचंद्र उनके शिष्य सुमतिकीर्ति उनके शिष्य गणकीर्ति उनके शिष्य वादीभूषण उनके शिष्य रामकीर्ति और उनके शिष्य पद्मनंदि के शिष्य थे। कवि ने अपनी रचना 'प्रद्यम्नकथा' का रचनाकाल नहीं बताया है। रामकीर्ति के उपदेश से सं० १६७६ में श्रीपाल कथा की रचना हुई थी। अतः उनके प्रशिष्य देवेन्द्रकीर्ति का समय १७वीं शताब्दी का अंतिम चरण ही होगा। इस ग्रंथ की कथा हरिवंश से ली गई है। प्रारम्भ में कवि ने जिनेश्वर एवं सरस्वती की वंदना के बाद गुरु परंपरा का उल्लेख किया है तथा सकलकीति से लेकर पद्मनंदि तक का सादर स्मरण किया है। उसके बाद कवि लिखता है
ओ गछपती पदनमी कहूँ प्रद्युम्न कथा प्रबंध, हरीवंश ग्रन्थ थी उद्धरी, जेह सुद्ध संबंध । कवि का नाम इन पंक्तियों में आया है
साखि बलभद्रह करी कर्यो संखमणी अंगिकार,
देविंद्र कीरति कहीं पुण्यिं पामिसिं जयकार । इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ७४८ (प्रथम संस्करण) और भाग २ पृ००
१७५ (द्वितीय संस्करण) २. वही भाग ३ पृ० ३४५ (द्वितीय संस्करण)
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