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दुवसागर
२३३ देवीदास द्विज-संभवतः ये खरतरगच्छीय समयसुंदर उपाध्याय के शिष्य देवीदास से भिन्न थे। उन्होंने अपनी षडारक [ ६ आरा] महावीर स्तोत्र या स्तवन में तपागच्छीय विजयदान सूरि का सादर स्मरण किया है। इनकी यह रचना सं० १६११ आसो सुदि १५ शुक्र को राडहृद में लिखी गई। इसके अन्त की कुछ पंक्तियाँ इस संदर्भ में उद्धत कर रहा हूँ
इम हरष धरीनई स्तवीउ वीर जिणंद, राडबरपुरमंडण पाय प्रणमइ सुरिंद । मइ पुन्यपसाइं पाम्या जिनवरराय, मुझ पापपडल सवि दुःकृत दूरि जाई । श्री तपगच्छनायक श्री विजयदान सूरिंद,
तस पाय प्रणमीनई सेवइ सुरनरवद ।। रचनाकाल
संवत सोल इग्यारोत्तरा वरसह केरुं मान
आसो सुदि पुनिमि वार शुक्र शुभथान । कवि ने इसमें अपने को विजयदान का शिष्य स्पष्ट रूप से नहीं कहा है किन्तु लगता है कि वह इनका भक्त शिष्य है। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुओं है
सकल जिणंद पाओ नमी, पांमी परमाणंद,
दोइकर जोडिवीनवु चोवीसमा जिणचंद । इसका अंतिम कलश देखिये
इम थुणिउ जिनवर वीर सुखकर, राडवरपुरमंडणु तस पाय पणमी सीस नामी, दुरिअ दुरगति खंडणु। सेवइ सुरासुर थुणइ भासुर, गरभवास विभंजणो,
द्विज भणइ देवीदास सेवक, सकल संघ मंगलकरो।' यह रचना चैत्यवंदन स्तुति स्तवनादि संग्रह भाग ३ में प्रका‘शित है।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० ४८-४९ (द्वितीय संस्करण) और भाग
१ पृ० २०२ तथा भाग ३ पृ० ६७५ (प्रथम संस्करण)
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