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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रचना है। यह कृति सं० १६१९ के दूसरे श्रावण मास के कृष्णपक्ष की नवमी, रविवार को वडवागाम में लिखी गई थी। यह रचना १७वीं शताब्दी में हुई किन्तु इसकी भाषा शैली विमलप्रबंध और कान्हडदे प्रबंध की भाषाशैली से खूब मेल खाती है। कवि शामलभट्ट की ‘महा पचीसी' का मूल इसमें व्यक्त है। कथासरित्सागर और वृहत्मंजरी आदि संस्कृत ग्रन्थों में वेतालपचीसी कथा का मूल प्राप्त होता है । इसका प्रारम्भिक छंद निम्नांकित है---
सरसती सामिणी पयनमी, मांगु उचित पसाय,
कासमीर मुख मंडणी, वांणी दिउ मुझ माय । अन्त-प्रमोदशील पंडित गुरुराय, ते सहिगुरुना प्रणमी पाय;
करी चोपाइ नाम वेताल, पचवीसें अं कथा रसाल। रचनाकाल-संवत सोल उंगणीसा वर्ष बीजे श्रावण शांमल पख्ख ।
नुमि तणो दिन रविवार, नक्षत्र पुनर्वसु आव्यु सार । वडवे गांमि रह्या चोमास, रचिउ वासुपूज्य नि पास,
चौपै कथा संबंध विनोद, सांभलताउपजे प्रमोद ।' कवि ने कुल छंद संख्या ८२३ बताई है पर श्री देसाई ने ८२२ बताया है; कवि कहता है
दूहा गाहा बंध चोपाई, आठसिं नि त्रेविस जे हुई। लेकिन श्री देसाई ने अंतिम छंद इस प्रकार बताया है
करजोडी प्रणमु कविराय, सोधी अक्षर ठवज्यो ठाय, जिहां लगे तारा रविचंद, कथा रहिज्यो जिहाँ तपें जिणंद ।२२।२
यह रचना जगजीवनदास दयाल जी मोदी ने संशोधित करके छपाई है।
देवसागर-आंचलिक गच्छ के साधु थे, किन्तु गुरुपरम्परा अज्ञात है। इन्होंने 'कपिल केवली रास' की रचना सं० १६७४ श्रावण शुक्ल १३ जोवाष्टक में की। इस रचना का अन्य विवरण या उद्धरण उप. लब्ध नहीं हो सका। १. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० ११४-११६ (द्वितीय संस्करण) २. वही, भाग १ पृ० २२१-२२३ और भाग ३ पृ० ७०२ तथा १५०८
(प्रथम संस्करण) ३. वही, भाग ३ पृ० ९७१ (प्रथम संस्करण) एवं भाग ३ पृ० १८७ (द्वितीय
संस्करण)
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