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दुवरत्न
तासु सीस लवलेसे उपदिशे रे, देवरतन कहे अम, खंड त्रीजे ने ढाल धन्यासीरी रे चढ़ी परिणामे तेम । सतीय चरित्र संभालता भणता छवी रे हुइ आणंद रंगरोल, देवरतन कहइ तेहने संपजइ रे, लखिमी तणा कल्लोल ।'
यह रचना तीन खंडों में विभक्त है । इसमें शीलवती के माध्यम से शीलगुण का ही बखान किया गया है। इसकी भाषा सरल मरुगुर्जर है। कवित्व सम्बन्धी कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं मिली।
देवराज-आप विजयगच्छ के मुनि पद्मसूरि के शिष्य थे। आपने सं० १६६२ चैत्र शुक्ल ९ रविवार को 'हरिणी संवाद' नामक काव्य पूरा किया। इन्होंने सं० १६८९ से पूर्व ही अपनी दूसरी रचना 'सकोशलऋषिढाल' ( ६४ कड़ी) भी पूर्ण की थी। 'संकोशलऋषिढाल' का आदि
सुहगुरु वयणे सांभली ओ रे, हू ऊ मुझ आनंद,
गुण समरऊं हुं तेहना जी वंछइ रोहणि चंद । अंत-वीरधवल ऋषि बाघणि बूझवी, आप्या अणसण सार,
अणसण पाली बेहं सुरवर थया, लहसइं मोक्षद्वार ते धन्य । नर चारित्र चोखु आदरी, वर्जई च्यारि कषाय, सुरनर सारइं तेहनी सेवना, दिवराज प्रणमइ पाय ।
ते धन्य दहाडा जइनइ वंदिसु ।६४।२ इस रचना में गुरुपरंपरा नहीं है, लगता है श्री देसाई ने गच्छगुरुपरंपरा 'हरिणी संवाद' से लिखा है।
देवशील-आप तपागच्छ के सौभाग्यहर्ष सूरि की परंपरा में प्रमोदशील के शिष्य थे । आपने अपनी रचना 'वेताल पंचवीसी रास' अथवा चौपाई अथवा प्रबंध में गुरुपरंपरा के अन्तर्गत सौभाग्यहर्ष के शिष्य सोमविमल सूरि उनके शिष्य लक्ष्मीभद्र उनके शिष्य उदयशील
और उनके शिष्य चारित्रशील का उल्लेख किया है। चारित्रशील के शिष्य प्रमोदशील आपके गुरु थे। यह रास ८२२ कड़ी की विस्तृत १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ३३५-३३६ (द्वितीय संस्करण) और
वही, भाग १ पृ० ५८५ और भाग ३ पृ० १०८० (प्रथम संस्करण) २. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ८३ (द्वितीय संस्करण) ३. वही, भाग ३ पृ० ८९७ (प्रथम संस्करण)
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