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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास द्वितीय संस्करण के संपादक श्री कोठारी का स्पष्ट मत है कि यह रचना विद्यासागर के शिष्य देवचंद की है।'
इसका प्रारम्भ इस प्रकार हैजंबूद्वीप मझारि, क्षेत्र भरत मांहि, नयरी अयोध्या जाणीइ अ, तिहा श्री विजयनरिंद, दोइ सुत तेहना, विजयबाहु पुरंदर से, विजयबाह कुमार चालिउ घर थकी, इक दिन नाटापुर भणी ,
परणी राजकुमारि, नाम मणोरमा, परणी वलीउ धार मणी ओ।' रचनाकाल और गुरुपरंपरा कवि ने स्वयं इस प्रकार बताई है---
कीरतिधर अभिराम, संयमपालीयइ, मुगति गया मनि समराइ । श्री सूकोशल साध, वलीय कीरतिधर, सेवकजन ने सुखकरु । संवत सोल सइ (पाठा० सोल) दोय, आसो मसवाडइ, थुणी आ दोइमुनि पुगवा मे, श्री विजयदान सूरिंद, श्रीविद्यासागर, सेवक देवचंद इम · ।"
यह रचना पहले प्रथम देवचंद, जो भानुचंद के शिष्य थे, के नाम दर्शायी गई थी। काल क्रमानुसार ये ही प्रथम हैं और पहले का स्थान वाद में पड़ता है।
देवरत्न-खरतरगच्छ की जिनभद्रसूरि शाखा में देवकीति नामक साधु आपके गुरु थे। इनकी गुरुपरंपरा इस प्रकार है : जिनभद्र>दयाकमल>शिवनंदन>देवकीति । देवरत्न ने सं० १६९८ में शीलवतीचौपाई' की रचना बालसीसर नामक स्थान में कार्तिक माह में की। कवि ने इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया है
संवत सोल अठाणु काती समे रे, बालीसीस (सर) नयर मझारि, सीलवती नी कीधी चोपइ रे, सीलतणे अधिकारी।
आगे गुरुपरम्परा के अन्तर्गत जिनराजसूरि से लेकर जिनभद्रसूरि शाखा के उपरोक्त गुरुओं का वर्णन किया गया है। इसकी अंतिम पंक्तियाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० ११ (द्वितीय संस्करण) २. वही ३. श्री अगरचन्द नाहटा-परम्परा पृ० ८५
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