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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रचनायें-आपने सं० १६९२ से पूर्व 'नवतत्व चौपाई' लिखी और सं० १६९५ में आपने 'शत्रुजयतीर्थपरिपाटी' की रचना की जो प्राचीन तीर्थमालासंग्रह भाग १ के पृ० ३८ से ४७ पर प्रकाशित है। आपकी तीसरी रचना 'पृथ्वीचंद्रकुमाररास' (१७४ कड़ी) १६९६ फाल्गुन शुक्ल ११ को साबली में पूर्ण हुई। इन तीन प्रमुख कृतियों के अतिरिक्त आपने कई स्फुट रचनायें भी की हैं जैसे महावीर २७ भवस्तवन पार्श्वस्तव, शंखेश्वरस्तवन, पोसीनापार्श्वस्तवन, नेमिस्तवन, आदिनाथस्तवन आदि । ये स्फुट रचनायें भक्तिभावपूर्ण स्तवन हैं जिनपर भक्तिकाव्य का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। इन्होंने संस्कृत में 'सौभाग्यपंचमी स्तुति' की रचना की है। इससे विदित होता है कि ये राजस्थानी, हिन्दी आदि के साथ ही संस्कृत के भी अच्छे ज्ञाता थे।
नवतत्त्वचौपइ की अन्तिम पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं जिनसे इनकी गुरु-- परंपरा आदि पर प्रकाश पडता है
सुविहित साधु तणो शृगार, श्री विजयदेव सूरिगणधार । तास पाटे प्रगट्यो सूरिसिंह विजयसिंह सूरि राखी लीह। गुरु श्री सकलचन्द उवझाय, सूरचंद पंडित कविराय । भानुचंद वाचक जगचंद, तास सीस कहे देवचंद । ओ चोपइ रचीकर जोड़, कविता कोइ म देजो खोड ।
अधिको ओछो सोंधी जोडि, भयंता गुणंता संपति कोड ।' शत्रुञ्जयतीर्थपरिपाटी (सं० १६९५) प्रकाशित है; इसका प्रारम्भ निम्नपंक्तियों से हुआ है
सकल सभा रंजन कला, दियो सरसति वरदानो जी. श्री विमलाचल स्तवन भण, पामी श्री गुरु मानो जी। संवत सोल पंचाणुये, इडर रही चौमासो जी,
यात्रा करवा संचया, शुभ दिवस शुभ मासो जी। अंतिम कलस--गुरु श्री हीरविजय सूरि पसायें श्री भानुचंद उवझाया,,
कासमीर अकबर सा पासइ शेत्रुजय दाण छराया तास सीस देवचंद कहें आ गिरगिरनो राया भेट्यो भावधरी ओ तीरथ, मनवंछित सुखदाया,
___ आज मनवांछित सुख पाया। १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ०.२८८-२९० (द्वितीय संस्करण) २. वही
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