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देवगुप्तसूरि शिष्य
२२७ रचना का नाम है-अमरदत्त मित्रानंद रास । इसका रचनाकाल इस प्रकार कहा है
कंण संवत्सर केहे मास, रच्यो रास ते कहुं विमास । संवत सोल छिडोत्तरा जांण शाके चौद बहुत्तरि वषांण । वदि वैशाख चौथि तिथि सार, मूल नक्षत्र निर्मल रविवार ।
तेणे दिन निपायो रास, सांभलता सवि पुहले आस । अर्थात् यह रचना सं० १६०६ वैशाख वदी ४ रविवार को हुई। इसमें मित्रानंद के चरित्र के माध्यम से कर्मफल का प्रभाव दर्शाया गया है। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस संदर्भ में द्रष्टव्य हैं
पयपंकज प्रणमी करी भले भावे भारती नमेवीय, सहिगुरु चरणे सिरनमि अकचित्ते कविराय सेवीय । कर्मफला फल जाणवा मित्रानंद चरित्र,
बोलिसि बहु बुद्धि करी सुणयो सहु इकचित्त।' इसकी अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार है :मेरु महीधर महीअलिसार, जिहां प्रतपि दिनकर संसारि,
तां मे रास सदा सुखकार, जयु जयु श्री संघ मझारि ।' देवचंद-तपागच्छीय भानुचंद के शिष्य थे। ये भानुचन्द सकलचंद की परंपरा में सूरचंद्र के शिष्य थे और अकबर के दरबार में प्रतिष्ठित जैन विद्वान् के रूप में रहते थे। देवचंद के पिता अहिम्मनगर के अंबाइया गोत्रीय ओसवाल वैश्य रिंडोशाह थे। इनकी माता का नाम वरवाइ था। बचपन में इन्हें गोपाल नाम से पुकारा जाता था। नैवै वर्ष की अवस्था में इन्होंने अपने भाई और माता के साथ पं० रंगचंद्र के पास दीक्षा ली। इनका दीक्षा नाम देवचंद और इनके भाई का विवेकचंद रखा गया। सं० १६६५ में विजयसेनसूरि ने इन्हें पंडित पद प्रदान किया । इन्होंने राजस्थान और गुजरात के विभिन्न स्थानों में सघन विहार किया और संयम, व्रत-नियम का पालन किया। सं० १६९७ में जब वे सरोतरा में चौमासा कर रहे थे, उसी समय कुछ अस्वस्थ हये और आठ दिन के अनशन के उपरान्त वैशाख शुक्ल ३ को शरीर त्याग किया। १. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० २००-२०१ (प्रथम संस्करण) २. वही, भाग ३ पृ० ६७३ (प्रथम संस्करण)
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