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________________ र२६ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ब्रह्मानी बेटी सरस्वती, गुरु वचन चाले गजगती, कलस कुंदल वेणा साथ, पुस्तक षठ जामणं हाथ ।' इसमें कवि ने देल्ह की रचना के कुछ अंश का विस्तार किया है। कथा मनोरम है किन्तु कविकर्म शिथिल है। इसकी अन्तिम पंक्तियां उदाहरणार्थ उद्ध त हैं : जो तू आवे सामो अणी, तो मानु त्रिभुवनद्धणी । कुड रमें ने रषि माम, बाहर काट पोचाडु हाम । ओ पूजावत सामी बाथ, तो तो जाण द्वारकानो नाथ जीत्यो झगडो कीम हरीये, गोले मरे तेने वीष नवी मारीये देवकमल-खरतरगच्छीय साधुकीति की परंपरा में आप दयाकलश के शिष्य थे। साधुकीर्ति को सं० १६३२ में जिनचन्द्र सूरि ने उपाध्याय पद दिया था और आपने इससे पूर्व ही सं० १६२५ में तपागच्छवादियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया था । साधुकीर्ति ने सं० १६४६ में जालौर में शरीरत्याग किया था। इनके जीवनक्रम पर आधारित अनेक शिष्यों और प्रसंशकों ने कई रचनायें लिखी हैं। देवकमल का भी एक गीत प्राप्त है जो मात्र ४ कड़ी का है। यह ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह में श्री साधुकीति 'जयपताका गीतम्' के अन्तर्गत तीसरी रचना 'गहूली' के नाम से संकलित है। गीत राग आसावरी में आबद्ध है। इसका आदि और अंत दिया जा रहा हैआदि-वाणि रसाल अमृत रससारिखी, मोह्या भवियण लोई जी। सूत्र सिद्धंत अर्थ सूधा कहइ, सुणतां सवि सुख होई जी।। अंत-दरसणि नवनिधि सुख संपति मिलइ दयाकलश गुरु सीसो रे, देवकमल मुनि कर जोड़ी भणइ, पुरवउ मनह जगीसो रे । देवगुप्तसूरिशिष्य ( सिद्धि सूरि ) आप उपकेशगच्छ की बिंबदणीक शाखा के विद्वान् होंगे। देवगप्त सरि के अनेक प्रतिमा लेख १६वीं शताब्दी के अंत के लिखे उपलब्ध हैं, अतः आपके शिष्य सिद्धिसूरि का समय १७वीं शताब्दी का प्रारम्भिक चरण होगा। आपकी १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ खण्ड २ पृ० २१६४ (प्रथम संस्करण) २. वही ३. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह-पृ० १३७-१३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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