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________________ २२४ मरु - गुर्जर जैन साहित्य का वृहद् इतिहास छोटी २२ कड़ी की रचना कसूरकोट में लिखी गई थी । कसूरकोट लाहौर से ४७ मील दूर दक्षिण-पूर्व में स्थित है । यद्यपि इन दोनों रचनाओं का उल्लेख श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने अलग-अलग स्थानों पर किया है पर रचना स्थान की समीपता, रचनाकार का नाम ऐक्य यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि दोनों कृतियों का कर्त्ता एक ही व्यक्ति दुर्गादास था । कवि ने खंधककुमारचौपइ में गुरु परम्परा इस प्रकार लिखी है- उत्तराध गछ मंडण गुरु, सरवर नामि सुजाणो रे, तासु सीस अजैन मुनी, महिम मंडलि जनु मानो रे । तासु सीस दुर्गदास गणी, लाहोर नयरि मुनि ध्यायारे, संवत सोल सये पणतीसइ, भादो वदि पंचमि गाया रे । ' इसका आरम्भ इस प्रकार किया गया है मुनि सुव्रत जिन वीसमउ पय प्रणमउं जिनचन्द, खंधकसूरि शिषह तणी, चरीय भणउ आनंद । दूसरी कृति 'त्रिषष्टिशलाका स्तवन' का आदि, अन्त इस प्रकार है— आदि - वंदी जिण चउवीस्स ओ चकी वर बार जगीस्स ओ, नव नव वल वसुदेव अ पडिसतू नव वलिदेव अ । अन्त-सुरइंद चंद्दा वेवविंदा वामकामनिनासणी, दालिद भं-मोह गंजण, वामकाम विहंडणो । सुभाव गभीयां दुरगदासि ढविया कसूरकोटहिं सुहकरो। " लाहौर में रहने के कारण पंजाबी द्वित्व की प्रवृत्ति के चलते अर्जन, दुर्गादर्गादास, चउबीस्स, जगीस्स आदि एक रूप दिखाई अवश्य देते हैं पर मूल भाषा शैली मरुगुर्जर ही है और प्रमाणित करती है कि जैन साधु एवं साहित्यकार दूर-दराज के स्थानों में भिन्न-भिन्न काल में रहते हुए भी एक विशेष मिश्र शैली का प्रयोग करते थे, जिसे गुर्जर नाम दिया गया है । १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ७४० (प्रथम संस्करण) और भाग २ पृ० १६३ (द्वितीय संस्करण ) २. वही, भाग ३ पृ० ३६५ (द्वितीय संस्करण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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