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दर्शनविजय या दर्शनमुनि
२२३ अपने पट्ट पर कमलविजय को बैठाकर उनका नाम विजयाणंद रखा और स्वयं स्वर्गस्थ हुए। इसी घटनाक्रम के साथ पहला अधिकार समाप्त हुआ है। यह १५३७ कड़ी का है। दूसरा अधिकार पहले की अपेक्षा छोटा २२२ कड़ी का है। इसमें विजयदेव और विजयाणंद की मैत्री, विजयतिलक की साधुता और चरित्र, शीलगुण, विहार, प्रवचन आदि का विवरण है। यह रास साम्प्रदायिक इतिहास के इस महत्वपूर्ण पक्ष पर अच्छा प्रकाश डालता है। इसमें विजय पक्ष का समर्थन किया गया है।'
दानविजय-आप खरतरगच्छ के वाचक धर्मसुन्दर के शिष्य थे। श्री देसाई ने इनका नाम दानविनय लिखा है। श्री अगरचन्द नाहटा ने भी दानविनय ही नाम दिया है। किन्तु मूल पाठ में नाम दानविजय है जो 'नंदिषेण चौपाई' की निम्नाङ्कित पंक्तियों से स्पष्ट होता है
संवत सोल पइसठा वरसइ, नगर नागोर कीयउ मन हरसइ, श्री धर्मसुन्दर वाचक सीस, दानविजय पभणइ सुजगीस। श्री जिनचन्द सुरीसर राजइ, अह सम्बन्ध भण्यउ हितकाजइ, श्री जिनकुशलसूरि सुपसायइ, भणतां गुणतां नवनिध थायइ।
श्री दानविजय (दान विनय) की यह रचना ८६ गाथा की है और सं० १६६५ नागौर में लिखी गई है। इसकी प्रति श्री अगरचन्द नाहटा के संग्रह में है। इनकी अन्य दो रचनायें-नेमिनाथ रास और अष्टापदस्तवन भी प्राप्त हैं। नेमिनाथ रास १३४ गाथा की विस्तृत और सरस रचना है। आप अच्छे गद्य लेखक भी थे। आपने 'उवसर्ग हर स्तोत्र' पर बालावबोध लिखा है।
दुर्गादास --आप उत्तरार्धगच्छीय सरवर मुनि के प्रशिष्य और अर्जुनमुनि के शिष्य थे। आपकी दो रचनाओं का पता चलता हैपहली खंधककुमार सूरि चौपाई (६३ कड़ी) जो सं० १६३५ भाद्र वदी ५ लाहौर में रची गई। दूसरी 'त्रिषष्टिशालाकास्तवन' अपेक्षाकृत १. ऐतिहासिक रास संग्रह भाग ४ पृ० ७१ २. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ९०२ (प्रथम संस्करण) ३. श्री अगरचन्द नाहटा–परम्परा पृ० ८४ ४. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ९४ (द्वितीय संस्करण)
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