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________________ २२२ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास संवत ससि रस निधि मुनि वरसिं पोस सुदि रविकर योगे जी, रास रच्यो आदर करीने शास्त्र तणे उपयोगे जी। वीसल नयर केसव सा नंदन घिन्न सोमाइ माय जी। श्री राजविमल वाचक सीस अनोपम मुनि विजय उवझाय जी।' इसलिए शंका उत्पन्न होती है कि एक रचना में कवि ने अपने "प्रगुरु का नाम विजयाणंद और दूसरी जगह राजविमल बताया है, पर दोनों रचनाओं में गुरु एक ही मुनिविजय हैं । अतः ये दोनों कवि एक ही व्यक्ति हैं। यह रचना ऐतिहासिक रास संग्रह भाग ४ में प्रकाशित है। इसमें विजय तिलक सूरि का विवरण दिया गया है। इस कवि ने छन्द, लय और तुक का अच्छा प्रयोग किया है। यथा-तास प्रसादें विस्तरयो, महि मंडलि अ रास जी, जे गीतारथ जगहितकारी, तेह तणो हूँ दास जी। आरम्भ-उदय अधिक महिमा घणो, मनमोहन पास, __संघ सयल आणंदकरु, सुख संपद बहुवास । अन्त-जिहाँ लगे ओ शासन श्री जिननं, जिन आणाना धारी जी, तिहाँ लगे ओ भणयो सुणयो रास विजय जयकारी जी। यह रास दो अधिकारों में विभक्त है। पहला अधिकार सं० १६७९ में लिखा गया, यथा-- तास सीस पभणइ बहुभगति दर्शनविजय जयकारी जी, ससि रस मुनि निधि वरसि रचीओ रास भलो सुखकारी जी। दूसरे अधिकार में विजयाणंद जी का वृत्तान्त दिया गया है। रासनायक विजयतिलकसूरि विजयसेनसूरि के पट्टधर थे और विजयसेन हीरविजयसूरि के पट्टधर थे। धर्मसागर के शिष्यों ने विजयदेव सरि को मिलाकर गच्छनायक के विरुद्ध लोगों को भड़काया। दर्शनविजय ने सागर पक्ष वालों से वाद-विवाद किया। इस विवाद के चलते पं० रामविजय को आचार्य पदवी मिली और नाम पड़ा विजयतिलकसूरि । इसी वृत्तान्त को इस अधिकार में वर्णित किया गया है। भानुचन्द्र ने भी जहाँगीर से विजयतिलक के पक्ष में सिफारिस की। बादशाह ने दोनों पक्षों को बुलवाया और विजयदेव सूरि को हीरविजय सूरि के आदेशानुसार चलने को कहा। विजयतिलक ने सं० १६७६ में १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ९. (द्वितीय संस्करण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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