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दर्शनविजय या दर्शनमुनि
२२१ रचना परिचय-नेमिजिनस्तवन ( रागमाला ) की प्रारम्भिक पंक्तियाँ देखिये - सकल मनोरथ पूरवइ, प्रणमी गुरु थुणस्यु हवइ,
नवनवइ रागि जिणेसरु । यह रचना सं० १६६४ मागसर पौष २, सूरत में लिखी गई और कुल ५९ कड़ी की है । इसकी अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
तपगछराज हीरविजय सूरि, तास सीस मुनिवरो, मुनि विजयवाचक सीस दर्शनविजय कहइ श्री जिनवरो । मि स्तव्यो भावि वेद रस चंद्र मित संवच्छरो,
सहइ मासि द्वितीया राजयोगे सूर्यपुर वंदिर वरो।५९। प्रेमलालच्छी रास अथवा चंदचरित ( ९ अधिकार ५३ ढाल सं० १६८९ कार्तिक शुक्ल १० बुरहानपुर) यह रचना आनंद काव्य महोदधि मौक्तिक १ में प्रकाशित है। इसमें चंदन रेश, जो चंदमुनि हो गये थे, के शील का वर्णन किया गया है। इसका आदि इस प्रकार है--
श्री सुखदायक जिनवरु नामि परमाणंद,
प्रणमी गौतम गणधरु श्री वसुभूति नंद । गुरु परंपरा-श्री विजयाणंद सूरीसरु तपगछपति सुप्रसादि,
वाचक मुनिविजय गुरु, गुण समरं आल्हादि । शील का माहात्म्य-शील प्रभावि सुख घणु, शील सुमतिदातार,
शीलिं शोभा अति घणी, शील सदानंद नार ।' रचनाकाल-संवत सोल ब्यासी कातिक सुदि दसमी वार
गुरु पुष्यते दिवसमेव,. श्री बुनिपुर नयरवरमंडणो जहाँ मनमोहन पास राजइ । इसमें गुरु परम्परा का उल्लेख करते समय कवि ने सर्व प्रथम हीरविजय और अकबर के मिलन प्रसंग का उल्लेख है। विजयसेन सूरि, विजयतिलकसूरि, विजयाणंदसूरि के शिष्य मुनि विजय को कवि ने अपना गुरु बताया है। इससे इनकी गुरु परंपरा का स्पष्ट निर्देश मिलता है। विजयतिलकसूरिरास में रचनाकाल और गुरु परम्परा को इस प्रकार बताया गया है ( दूसरे और अन्तिम अधिकार का रचना समय यह है )१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ८६ (द्वितीय संस्करण)
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