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दथारत्न
२१५ प्रतिमा है। सूरिजी वहाँ गये, आराधना की और सं० १६७४ में मूर्ति क्रमशः प्रकट हुई। सं० १६७६ में नारायण भण्डारी ने मन्दिर का निर्माण कराया और सं० १६८१ में मूर्ति की प्रतिष्ठा हुई। भानु या भाणपुत्र नारायण भंडारी ने इस पर बड़ा धन व्यय किया। कवि भंडारी की प्रशंसा में कहता है--
'भंडारी भाना सुतन नारायण नारायण रूप कि, देवगुरु रागी भागमल इणसम अवरन दीठ अनूप कि ।'
जिनचन्द्र के पट्टधर जिनहर्ष भी पार्श्वनाथ की कृपा से यशस्वी एवं चमत्कारी संत थे। कहते हैं कि उन्होंने पानी से दीपक जलाया और सातसेर लपसी से गांवभर को जिमाया आदि । इन्हीं स्वयंभू पार्श्वनाथ की सन्निधि में बैठकर दयारत्न ने यह ४३ कड़ी का छोटा रास लिखा। इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है--
संवत सोल पचाणवें राजे श्री हरषसूरीस कि,
पास तणा गुण पूरिया सविहि दयारतन सुसीस कि ।' स्वयं प्रकट हई मति का वर्णन करता हआ कवि लिखता हैसप्त फणो सोहामणो आप रूप कीधो आकार कि,
प्रगडयो पूरी नहीं किण विधि आवै हिव कयवार कि । इसकी मूर्ति प्रतिष्ठा का समय कवि ने इस प्रकार बताया है
संवत सोल इक्यासियै वइसाषां सुदि तीज विचार कि, दंडकलश चाटण दिवस ध्वज महुरत जोयो निरधार कि ।' इसकी प्रारम्भिक पंक्तियां निम्नाङ्कित हैंहुँ बलिहारी पास जी, कापड़हेड़ा स्वामी सयंभ कि,
गुण गावण मनि गहगहै, आपो सद्गुरु वचन अचंभ कि । हरिबल चौपाई का अधिक विवरण उपलब्ध नहीं हो सका पर कापडहेड़ा रास से जो उद्धरण दिये गये हैं उनसे कवि की भाषा शैली और कवित्व शक्ति का अनुमान पारखी पाठक लगा सकते हैं।
१. ऐतिहासिक रास संग्रह भाग ३ पृ० ५९-६० २. वही ३. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ५७३ (प्रथम संस्करण)
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