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दयाकुशल
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से गेय है । भाषा प्रसाद गुणसंपन्न है इसलिए यह लोकप्रिय रचना है। इसकी कुछ पंक्तियाँ प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत हैं
मात पिता गुरु देवता, गुरु अति मति दातार; गुरुविण भवजलनिधि तणौ कवण उतारे पार । अनंत तीर्थंकर जे हुआ, होसे वली अनंत, वे सहु सुगुरु पसाउलो, गुरु गुणनो नहि अंत । त्रिभुवन मां जे जे कला, गुरु विण ते नहि को,
जिम जल विणसवि वीजनो, उद्भव कहियनकोय ।' अन्त
'हीरजी हीरलो तास पटि अति भलो, श्री विजयसेन सूरीश राजे, श्री विजयदेव सरि तास पटि निरमलो, भाग्य सौभाग्य वैराग्य छाजे।। थापियो जेणि निज पाटि विजयसिंह जी, सदा उदयवंत गुरु अह गायो, कल्याणकुशल गुरु शिष्य सुखरंगरस,
कहे दयाकुशल सही में ज पायो । ज्ञानपञ्चमी नेमिजिन स्तवन (३० कड़ी) भी प्रकाशित है। यह 'जैन प्राचीन पूर्वाचार्यों विरचित स्तवन संग्रह' में संकलित है। पद महोत्सव रास सं० १६८५ की रचना है। इसमें हीरविजयसूरि का पदमहोत्सव वर्णित है। त्रेसठ शालाका पुरुष स्तोत्र ५९ कड़ी सं० १६८२ की रचना है। इसका आदि और अन्त उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैआदि-श्री जिनचरण पसाउले, मनह तणे उमाहलइ,
हुँ थुणं त्रिहसठि शलाका पुरुष ने । अन्त -तपगच्छपति श्री विजयदेव गुरु आचारज विजयसंघ सूरी,
सोल बिआसीइ त्रिहसठि शलाका पुरुष तणी में थुत्तिलही। कल्याणकुशल पंडित गुण मंडित तास पसाइ अह कहुँ,
दयाकुशल कहे उल्हट आणी, परमाणंद सुख सहीअ लहुं ।४९।' १. ऐतिहासिक जैन गुर्जर काव्य संचय पृ० १८१ २. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २६० (द्वितीय संस्करण) ३. वही, पृ० २५८ (द्वितीय संस्करण)
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