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मरु - गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
हीरविजय नाडोलाई नगरी के ओसवालवंशी साह कम्मा की पत्नी कोडमदे की कुक्षि से उत्पन्न हुए थे, वे आगे चलकर तपागच्छ, के गच्छनायक बने । इस बीच की प्रायः सभी प्रमुख घटनायें इसमें वर्णित हैं । इसके अन्त की कुछ पंक्तियाँ देखिये -
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रचनाकाल और स्थान
धन्य गुरु हीर धन्यधन्य तपगच्छ से, धन्य जेसंग जगमइ वदीतु, साही अकबर सदसि जिणइ निज अतुल बलइ, थामी जिनधर्म वर वाद जीत्यु । -आगरइ सहरि श्री पास पसाउलई, संवत सोल उगणपंसाचइ । कल्याणकुशल गुरु राज कल्याणकर, सी सदयाकुशल मनरंगि भाषइ । '
इसके अतिरिक्त तीर्थमालास्तवन सं० १६७८, त्रेसठशलाका पुरुष विचारगर्भित स्तोत्र सं० १६८२, पदमहोत्सवरास सं० १६८५, ज्ञानपंचमी नेमिस्तवन और विजयसिंह सूरि रास सं० १६८५ आदि आपकी अन्य उल्लेखनीय रचनायें उपलब्ध हैं । इनमें से विजय सिंह सूरि रास जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय में प्रकाशित है । यह २३३ कड़ी की रचना है इसी के साथ वीरविजय कृत 'विजयसिंह सूरि निर्वाण स्वाध्याय' (सं० १७०८ ) भी छपा है । इसका रचनाकाल इस प्रकार कहा गया है
सोल पंचासी इसी रे असाढ़ शुदि पूनिम दिने अ est तिहां रविवार, रास रच्यो मन ऊलट अ । २३१।२
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अर्थात् यह रचना सं० १६८५ आषाढ़ शुक्ल १५ रविवार को पूर्ण हुई ।
आदि - सरस वचन रस वरसती, सरसती भगवती देवि, तुझ प्रसादें गुरुगुण थुणु, हीयडे हरष धरेवि ।
इसमें तपागच्छ के ६१ वें गच्छनायक विजयसिंह सूरि का गुणाकिया गया है ।
नुवाद
यह रास राग देशारत तथा वेलाउल ( विलावल ? ) में बद्ध होने
१.
जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २५७ (द्वितीय संस्करण )
२. जैन गुर्जर ऐतिहासिक काव्य संचय क्रम सं० १४, पृ० १८०-८१
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