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________________ २११ त्रिभुवनचन्द्र चन्द्रशतक-(१०० पद्य) कवित्त, सवैयों में लिखित एक प्रौढ़ रचना है । इसके भी भाव आध्यात्मिक हैं और भाषा प्रसाद गुण सम्पन्न है । इसका भी एक उद्धरण प्रस्तुत हैगुन सदा गुनी मांहि, गुन गुनी भिन्न नाहिं, भिन्नतो विभावत्ता स्वभाव सदा देखिये। सोई है स्वरूप आप, आप सों न है मिलाप, मोह के अभाव में स्वभाव शुद्ध देखिये । छहो द्रव्य सासते, अनादि के ही भिन्न-भिन्न, आपने स्वभाव सदा ऐसी विधि लेखिये। पांच जड़ रूप भूप चेतन सरूप एक, जानपनों सारा ‘चन्द्र' माथे यो विसेखिये।' यद्यपि यह निश्चित नहीं है कि यह कृति इन्हीं की है अथवा किसी अन्य की, किन्तु इसकी भाषा, काव्य शैली आदि के आधार पर अधिकतर विद्वान् इसे इन्हीं की रचना मानने के पक्ष में हैं, फिर भी इस सम्बन्ध में शोध की अपेक्षा है। इनके फुटकर कवित्तों में से कोई उदाहरण उपलब्ध नहीं हो पाया किन्तु जितना उद्धरण प्राप्त है उससे ये एक सक्षम आध्यात्मिक भाव सम्पन्न कवि सिद्ध होते हैं । दयाकुशल-तपागच्छीय आचार्य हीरविजयसूरि की परंपरा में मेहमुनि के शिष्य कल्याणकुशल आपके गुरु थे। आपकी अनेक महत्वपूर्ण रचनायें उपलब्ध हैं और उनमें से कई प्रकाशित भी हो चुकी हैं । इनमें विजयसेनसूरि रास-लाभोदय रास (सं० १६४९) सर्वाधिक ऐतिहासिक महत्व की कृति है। इसमें हीरविजयसूरि और सम्राट अकबर की भेंट का महत्वपूर्ण विवरण है। यह रचना अकबर की मृत्यु से चार वर्ष पूर्व की गई। इसमें अकबर की विजयों और साम्राज्यप्रसार का भी व्यौरा है। कवि ने लिखा है कि सम्राट की सेवा में बड़े-बड़े राजा-महाराजा, रोमी, फिरंगी आदि उपस्थित रहते थे । यह १४१ कड़ी की रचना आगरा में लिखी गई थी। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियों में सरस्वती और हीरविजयसूरि की वंदना है, यथा सरसति मति अति निरमली, आपु करीय पसाय । जे संग जी गुण गावतां अविहड वर दिऊ माय । १. डा० प्रेमसागर जैन-हिन्दी जैनभक्ति काव्य एवं कवि पृ० १२८-१३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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