________________
२१०
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कृतियां हैं । भाषा शैली के आधार पर 'चन्द्रशतक' को भी इन्हीं की रचना कहा जाता है।
अनित्य पंचाशक (पद्य संख्या ५५, सं० १६५२ से पूर्व) इसमें छप्पय और सवैया छन्दों का प्रायः प्रयोग किया गया है । भाषा के नमूने के लिए मंगलाचरण की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैं
सुद्ध स्वरुप अनूपम मुरति जासु गिरा करुनामय सोहै, संजमवंत महामुनि जोध जिन्हों पर धीरज चाप धरौ है। मारन को रिपु मोह तिन्हैं वह तीक्षन सारक पंकति हो है,
सो भगवंत सदा जयवंत नमो जग में परमातम जो है।' अंत- पद्मनंदि मुनिराज तासु आनन जलधारी,
ता तहिं भई प्रसूति सकल जनमन सुखकारी । धन वनिता पुत्रादि सोक दावानल हारी,
भयदलनी सद्बोध अंत उपजावन हारी। उन्नत मतिधारी नरनि को अमृत वृष्टि संसय हरनि,
जय जय अनित्य पंचाशिका त्रिजगचंद्र मंगल करनि । दूहा- मूल संस्कृत ग्रंथ तै भाषा त्रिभुवनचंद,
कीनी कारन पाइ के पढ़त बढ़त आनंद ।' मूल रचना पद्मनंदि ने संस्कृत में की थी, 'चन्द्र' ने उसका अनुबाद भाषा में किया । अनुवाद सुबोध एवं प्राञ्जल है, भाव (अध्यात्म) की बानगी के लिए भी कुछ पंक्तियां देखियेजहाँ है संयोग तहां होत है वियोग सही,
जहाँ है जनम तहाँ मरण को वास है। संपति विपति दोऊ एक ही भवन दासी,
जहाँ वसै सुष तहाँ दुष को विलास है । जगत में बार-बार फिरे नाना परकार,
करम अवस्था झूठी थिरता की आस है। नट कैसे भेष और और रूप होहिं तातें,
हरष न सोग ग्याता सहज उदास है।
१. डा० कस्तूर चन्द कासलीवाल --प्रशस्ति संग्रह पृ० १०१ २. वही ३. प्रेमसागर जैन -हिन्दी जैन भक्ति काव्य एवं कवि पृ० १२८-१३०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org