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त्रिभुवनचन्द्र
सैन्य सहित तिहां आवीउ, विन्ध्याचल उत्तंग, जीवघणा तिहां देखीया विस्मय पाम्यु मनचंग | पिककेकी वाराहनी, हरण रोझ गींमाउ, हंस व्याघ्र गज सांबरा मृग वृष महिष नकाय । '
केरल युद्ध विजय के बाद लौटते समय सुधर्माचार्य के दर्शन हुए और उनके उपदेश से वैराग्य हुआ पर आचार्य की आज्ञा से घर लौट कर चारों कन्याओं से शादी किया । उसी रात्रि में चोर घुस आया, उधर जम्बू पत्नियों को उपदेश देते रहे, इधर चोर सुनकर प्रभावित होता रहा । प्रातःकाल जंबू दीक्षा लेने गये, साथ में माता-पिता, पत्नियाँ और उस चोर ने भी दीक्षा ली । खूब विहार किया, उपदेश दिया, अन्त में निर्वाण प्राप्त करने हेतु विपुलाचल पर्वत पर संल्लेखना ग्रहण की । यह एक कथा प्रधान काव्य है । यह रास जवाछ नगर के शांतिनाथ चैत्यालय में रचा गया था । इसका आदि-
वीर जिणवर वीर जिणवर नमु तेसार, तीर्थंकर चुवीस वांछितफल बहुदान दातार । वालपनि रिधि परिहरी, धरीय संयम भारसार ।
कुल छंद संख्या ६७७, अंतिम छंद
संवत सोल पंचदीसी, जवाछ नगर मझार, भुवन शांति जिनवर तणि रच्यु रास मनोहार । २
त्रिभुवनचन्द्र - आप आगरा निवासी थे और पांडे रूपचंद्र तथा कवि बनारसीदास के सान्निध्य में थे । इनकी रचनायें भी आध्यात्मिक भावों से ओतप्रोत हैं । आपके पारिवारिक जीवन एवं गुरुपरम्परा के सम्बन्ध में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है । ये कविता में अपने उपनाम 'चंद्र' का प्रयोग करते थे । इनकी अग्राङ्कित रचनायें प्राप्त हैंअनित्य पंचाशक, षट्द्रव्य वर्णन, प्रास्ताविक दोहे और कुछ स्फुट कवित्त आदि । इसमें से अनित्य पंचाशक और षद्रव्य वर्णन संस्कृत में लिखित रचनायें हैं; इन्होंने इन रचनाओं का हिन्दी ( मरुगुर्जर) में अनुवाद किया है । प्रास्ताविक दोहे और स्फुट कवित्त इनकी मौलिक
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१. डॉ० कासलीवाल - ब्रह्मरायमल्ल एवं भट्टारिक त्रिभुवनकीर्ति पृ० २७७ २ . वही
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