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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कर रहा था, तभी सं० १५९८ में उसने अपने भाई हिन्दाल के शिक्षक शेख अली अकबर की पुत्री हमीदा उर्फ मरियम से विवाह किया था ।हमीदा को लेकर जब वह अमरकोट के राजा राणाप्रसाद का आश्रित था, तब सं० १५९९ श्रावण १४ (२३ नवम्बर, १५४२ को उसे एक पुत्र हुआ जिसका नाम बदरुद्दीन मुहम्मद अकबर रखा गया । अकबर पितृपक्ष से तैमूर की सातवीं पीढ़ी में और मातृ पक्ष से ईरानी था । कहा जाता है कि बाद में इसके नाम और जन्मतिथि में हेरफेर किया गया । इसका नाम जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर कर दिया गया और जन्मतिथि १५ अक्टूबर, १५४२ बताई गई । जो हो, इसके नाम से शब्द 'अकबर' नहीं बदला; क्योंकि अकबर इसके नाना का नाम था । यह बालक आगे चलकर मुगलवंश के ही नहीं बल्कि विश्व के सर्वश्रेष्ठ शासकों में गिना गया यह १७वीं शताब्दी के भारतीय जनजीवन का भाग्यविधाता महान् अकबर बना । इसने कठोर संघर्ष एवं अनवरत अध्यवसाय से एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया और उस पर दीर्घकाल तक सुव्यवस्थित ढंग से शासन करता रहा । अतः इस शताब्दी की कला-संस्कृति और साहित्य पर इसके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का व्यापक प्रभाव पड़ा और यही कारण है कि इस काल की संस्कृति, कला और साहित्य साधना का सही परिचय प्राप्त करने के लिए महान् अकबर के कार्यों को ध्यान में रखना अपेक्षित है ।
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इसके बचपन में हुमायूँ को बड़ी भागदौड़ और मुसीबतों की जिन्दगी बितानी पड़ी थी। अमरकोट के राजा से अनबन हो जाने के कारण हुमायूं सपरिवार कन्धार गया, पर वहाँ उसके भाई अस्करी ने उसे कैद करना चाहा । हुमायूं अकबर को वही छोड़कर अपनी बीवी हमीदा के साथ भाग गया और ईरान के शाह से सहायता प्राप्त कर अपना खोया साम्राज्य वापस प्राप्त किया परन्तु दुर्भाग्यवश वह इसके एकवर्ष के भीतर ही एक दुर्घटना का शिकार हो गया और अकबर अल्प वय में ही पितृहीन हो गया ।
इस मुसीबत के समय अकबर अपने चाचा अस्करी के यहाँ एक स्त्री की देखरेख में बड़ा हुआ । फलतः वह वचपन से ही कठिनाइयों से जूझने का आदी हो गया। जोखिम उठाने में आनन्द का अनुभव करने लगा । उसकी प्रारम्भिक शिक्षा तो बाकायदे न हो पाई किन्तु वह स्वभावतः शूरवीर एवं प्रतिभाशाली था । हुमायूं की मृत्यु ( २४ जनवरी सन् १५५६, वि० सं० १६११ ) के समय अकबर पंजाब में था । इधर
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