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त्रिभुवनकीर्ति
२०७ मुक्ति को प्राप्त किया। इसमें प्रतिनायक नहीं है । इसके वर्णन सुन्दर हैं । जीवंधर की माता विजया का सौन्दर्य वर्णन देखिये
मस्तक वेणी सोभतु ए, जाणो सखी भार, सिथइ सिंदूर पूरती ए, कंठइ रूडउ हार । रंभा स्तम्भ सरीखडीए, विन्यइछि जंघ,
हंसगति चलइ सदाए, मध्यड जैसी संघ ।। वसंत वर्णन
सखी एकदा मास वसंत, आव्यु मननी अति रलीए,
मंजरी आंबे रसाल, केसू पड़े राती कलीए । जीवंधर को देखकर गुणमाला उसके विरह में सुध-बुध खो देती है
मंदिर आवी ताम, स्नान मंज्जन नवि करइ ए,
रजनी न धरइ नींद, दिवस भोज नवि करइ ए।' रास का आदि- आदि जिणवर आदि जिणवर प्रथम जे नाम,
जुग आदि जे अवतरया, जुगआदि अणसरीय दीक्षा । गुरु परंपरा-नदी अऊ गच्छ मझार रामसेनान्वपि हवउ
श्री सोमकीरति, विजयसेन, कमलकीरति यशःकीरति हवउ, तेह पाटि प्रसिद्ध चरित्र भार धुरंधरो,
वादीय भंजन वीरश्री उदयसेन भूरीश्वरो। रचना समय एवं स्थान - कल्पवल्ली मझार संवत सोल छहोत्तरी,
रास रचउं मनोसरि रिद्धि यो संघह धरि । अंत-जीवंधर मुनि तप करी, पुहुतु शिवपद ठाम,
त्रिभुवन कीरति इम वीणवइ, देयो तुम्ह गुणग्राम ।। ___ इसमें कवि ने आया, पाया, विनयकिया आदि खड़ी बोली हिन्दी की क्रियाओं के स्थान पर आव्यु, पामी-पामीय, वीनव्यु आदि शब्द रूपों का प्रयोग किया है जिससे कहीं कहीं भाषाशैली अटपटी हो गई है। १. डा० कस्तूर चन्द कासलीवाल-ब्रह्मरायमल्ल एवं भट्टारिक त्रिभुवनकीर्ति
पृ० २७६ २. वही
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