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मरु - गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
तेजरत्नसूरि शिष्य - तपागच्छीय तेजरत्नसूरि का प्रतिमा लेख सं० १६१५ का प्राप्त है अतः इनका शिष्य १७ वीं शताब्दी का ही होगा । इनके एक शिष्य कीर्तिरत्नसूरि ने 'अतीत अनागत वर्तमान जिनगीत' लिखा है, हो सकता है कि उन्होंने ही वर्तमान रचना 'गोड़ी पार्श्व' स्तवन भी लिखी हो । यह ६० कड़ी की कृति है और • सं० १६१६ फाल्गुन सुदी २, रविवार को पूर्ण हुई है । रचनाकाल इसमें इस प्रकार बताया गया है
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संवत सोल वसू अछूआ जासणो, फागण स्ताद वीजा रविवार गणो, जे भणसे सुणसे नरनारी, तास नाम पामसे जयकारी । इसकी प्रारम्भिक एवं अन्तिम पंक्तियां अधोलिखित हैंआदि - सरस वचन सरसति तणा, पामी अविचल मात, श्री गोड़ी पार्श्व जिणंद नी स्तवसू जिनगुणकीत ।
भाव भगते भलो जगते पुरिसादाणी स्तव भणी, श्री तेजरतन सूरिंद सीसो स्तवो गोड़ीपुर धणी । '
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'वसू अछुआ' का अर्थ आठ X दो = सोलह लगाया गया है । १७वीं शताब्दी तक भाषा विकास के बावजूद भी जैनमुनि परंपरित भाषा शैली का ही प्रयोग करते रहे ।
त्रीकममुनि -आप नागौरी लोकागच्छ के साधु आसकरण > वणीवीर के शिष्य थे । इन्होंने सं० १६९९ में रूपचन्द ऋषि रास ( अकबरपुर ), सं० १६८९ में 'अमरसेनरास' सं० १७०६ बंकचूलरास और रामचरित्र चौपड़ की रचना की । श्री अगरचन्द नाहटा ने अमरसेनरास का रचनाकाल सं० १६८९ और श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने सं० १६९८ दिया है । ऐसा करने का किसी विद्वान् ने कोई आधार नहीं दिया है । रूपचन्द ऋषिरास (११ ढाल, २२४ कड़ी, सं० १६९९ बुधवार, भाद्र कृष्ण ३, अकबरपुर ) का आदि इस प्रकार है
महावीर त्रिभुवन धणी, केवल न्यान पडूर, सेव करइ सुरनर सदा, पूरइ वंछित पूर ।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ६८८ (प्रथम संस्करण) और भाग २ पृ० १ - २ (द्वितीय संस्करण)
२. श्री अगरचन्द नाहटा - परंपरा पृ० ९१
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