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________________ तेजपाल २०३ शब्द से श्री देसाई को लेखक का भ्रम हुआ होगा, पंक्ति इस प्रकार है तोरी वदन शोभा मंडपि मोह मन्नभावन वेलि, घनश्याम स्यं वीजली झलकति करती गेलि । कोटि सूरीय जोति आधिकी, तुझ वदन देती हेलि, तेजपुज विराजती सेवक हूं रंगरेलि ।' पर यह 'सेवक' शब्द लेखक का नाम नहीं अपितु विशेषण हो सकता है। इसका प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है श्री जैनेद्र दिवाकरा, अरिहा त्रिभोवन चंदा रे, अठ महा पाडिहेर जे तेणि जुत्ता सुखकंदा रे । इस रचना का उल्लेख १६ वीं शताब्दी के इतिहास में सेवक के साथ किया जा चुका है अतः उसे सुधारकर पढ़ा जाय । तेजविजय-आप विजयतिलक के पट्टधर विजयाणंद के शिष्य विवधविजय या विजयबुध के शिष्य थे । आपने सं० १६८२ भाद्र वदी १० को वीरमगाम में 'शांतिस्तव' नामक काव्यकृति का निर्माण किया । रचनाकाल देखिये संवत जाणयो नयन वसु ससिकला, भाद्रपद मास वदि दसमिपुष्यि । वीरमगाम सुभ ठाम नो राजीउ, गाइयो श्री विजय विबुध शिष्यइं ।' यह ९९ कड़ी की रचना है । इसकी अन्तिम कड़ी इस प्रकार है तपगछ भूषण दलित दूषण विजयतिलक सूरीसरो, तस पट्टधारी विजयकारी विजयाणंद मुनीसरो। दीवान दीपक वादि जीपक श्री विजयबुध सुदरो, तस सीस लेसि तेजविजयई गाइओ श्री जिनवरो।' १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० २४१-२४२ (द्वितीय संस्करण) २. वही, भाग ३ पृ० २४८ (द्वितीय संस्करण) ३. वही, भाग ३ पृ० ९९२ (प्रथम संस्करण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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