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________________ ज्ञानमेरु १९७ पर प्रकाशित है। यह रचना प्रभावशाली एवं पाठकों में प्रिय है। इसमें गुरु के दोष और उनसे सतर्कता की चेतावनी है। इसका प्रारम्भ इस प्रकार है प्रणमं जिनवर गुरुना पाय, प्रणमं जे सुधा गण धाय, भक्ति सदा इम उच्चारिसी, किम तरिसी गुरु किम तारिसी। इसकी अन्तिम पंक्तियाँ निम्नाङ्कित हैं. सीष कहइ ज्ञानमेरु गणिइसी, भविकां लगइ अमृतजिसी, जे मन मांहि न संभारिसी, किम तरिसी गुरु किम तारिसी।' ज्ञानसागर-आप तपागच्छीय आचार्य विजयसेनसूरि के प्रशिष्य एवं रविसागर के शिष्य थे। आपने सं० १६५५ में १४४ कड़ी की एक रचना 'नेमि चन्द्रावला' जीर्णगढ़ या जनागढ़ में पूर्ण की, जिसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है सरसति भगवति मन धरी रे, समरी श्री गुरुपाय, नेमकुंवर गुण गायवा रे, मुझ मन ऊलट थाय । मुझ मन ऊलट थाय अपार, स्ववस्यू यादव कुल सिणगार, बावीसमो जिनवर ब्रह्मचारी, जय जय नेमजी जगहितकारी राजीमती भरतार वली वली वंदीये रे, रेवंतगिरि हितकार, देष्यां चित्त आणंदिये रे । रचनाकाल-संवत सोल पंचावने रे, जीरणगढ़ चौमास, रैवतकाचल ऊपरे रे, ऊजल सम कैलास । ऊजल सम कैलास प्रसाद, दीठा थी टलियो विषवाद, नेमि जिणेसर सामी थुणियो, तिहां थीं सफल जमवारो गणिओ। गुरु परम्परा-तपगछनायक जग जयो रे, श्री विजयसेन सूरींद, तपगछ माहि गाजतो रे, रविसागर मुणिंद । रविसागर मुणिंद सोभागी, तप जप किरिया संलयलागी सेवक न्यानसागर सुषकारी, स्तवीओ नेमि स्वामी __ आधारी।२ १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ९४-९६ (द्वितीय संस्करण) २. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ३१७, भाग ३ पृ० ८२५ (प्रथम संस्करण) और भाग २ पृ० २९८-२९९ (द्वितीय संस्करण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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