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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रूपसेन रलीयामणो मुनिवर सुगुण सुजान, ६ खंडइ करि गांइयो प्रतपो जांलगि भांण । पुण्य तणा परताप थी पगि पगि पामी ऋद्धि,
अंतइ चारित्र आदरी अकांतरि भविसिद्धि ।' प्रियंकर चौपाई - यह भी कई खण्डों में रचित विशाल प्रबन्धकथा है किन्तु प्रति के खंडित होने के कारण न तो रचनाकाल प्राप्त हो सका है और न रचना सम्बन्धी विशेष विवरण उपलब्ध है। तीसरे खंड के प्रारम्भ में नेमि की वंदना करता हुआ कवि लिखता है
अहनिसि प्रणमु अधिकतर, गिरुओ गुणभंडार, यादव वंसि वखाणीइ, गिरिनारि सिणगार । नारी नवल यौवना जीवदया मनि आणी, परहरि नइ पाछु वलिउ तृणा तणी परिजाणी । भाषा लिखि सकला कला सरसति शुद्ध प्रवीण,
छ राग छत्रीसइ रागिणी ते शु रहइ नितिलीन ।२ इसमें गच्छनायक कल्याणसागर की वंदना की गई है, यथा
प्रणमुं ग्रहमां गुरु वडु ज्योति वीमां जिमिचन्द । तिम गिरुउ गच्छनायकइ श्री कल्याणसागर सूरिंद । प्रवर पंडित पंगतइ कोइ न जाणइ जीपी,
प्रणमुं गुरु गुणमूरति ऐरावत जिम द्वीपि । बावीस परीषह चौपाई सं० १७२५ चौमासा नवानगर
संवत सत्तर पंचवीसइ सुन्दर श्री शांतिनाथ प्रसन्नो रे,
नूतन पुरि चउमासि करी तिहां रच्यो रास रतन्नो रे ।' इसमें भी उपरोक्त गुरु परम्परा दुहराई गई है। इसमें बाईस परीषहों का वर्णन किया गया है, यथा१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १०४३, भाग ३ खण्ड २ पृ० १२३४
और पृ० १६२८ (प्रथम संस्करण) तथा भाग ३ पृ० ३०१ (द्वितीय संस्करण) २. वही ३. वही पृ० १९५
और १६२८ (प्रथम संस्करण) तथा भाग ३ पृ० ३०१ (द्वितीय संस्करण)
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